Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लाकवार्तिके
णोंसे उपज जाना ही पदार्थीका जन्म है । उच्चारणसे पहिले शब्दका सद्भाव नहीं होनेसे निर्णीत कर लिया जाता है कि इस शब्द का पहिछे नहीं होकर पुनः कारणोंसे हो जाना ही जन्म है। पहिले विषमान हो रहे शब्दकी अभिव्यक्ति नहीं हुई है। क्योंकि कारणों करके किसी व्यवधायक पदार्थका पृथक् करण नहीं किया गया है । जैसे कि वायु द्वारा बादलोंके पृथक् कर देनेसे चन्द्रमा प्रकट हो जाता है । षांण करके कायी या निःसामागको हटा देनेसे चक्कूका पैनापन व्यक्त हो जाता है । ( व्यतिरेक दृष्टान्त ), वैसा शब्द नहीं हैं। अतः शद्वके नित्यपन साधनेको उदरमें रखकर प्रतिवादी का कार्यतम जाति उठाना निंद्य उत्तर है। उक्त जातियोंका उपलक्षण माननेपर आकृतिगण पक्षमै वृत्तिकारके कथनानुसार उक्त सूत्रका अर्थ यों करना चाहिये कि कार्य यानी जातियोंका अन्यत्र यानी नाना प्रकार माननेपर यह उतर है कि प्रयत्नका यानी तुम्हारे दूषण देने के प्रयत्नको अहेतुपना है । अर्थात् प्रतिवादीके प्रयत्नद्वारा वादीके हेतु के असाधकपनकी सिद्धि नहीं हो पाती है। क्योंकि उपलब्धि के कारण हो रहे प्रमाण यानी निर्दोष वाक्यकी जो उपपत्ति है, यानी प्रतिवादी द्वारा निर्दोष वाक्य के अधीन होकर अपने पक्षका साधन करना है, उसका अभाव है । भावार्थप्रतिवादीका वाक्य स्वयं अपने पक्षका व्याघातक है। जितने भी पिशाचीसमा, एकसमा, आदिक असत् उत्तर उठाये जायंगे, वे सब उच्टे प्रतिवादीके पक्ष का ही विघात कर देंगे । वादीके प्रकरण प्राप्त साधनका उन करके प्रतिबन्धन नही हो सकता है।
अनेकांतिकता हेतोरेवं चेदुपपद्यते । प्रतिषेधोपि सा तुल्या ततोऽसाधक एव सः ॥ ४४९ ॥ विधाविव निषेधेपि समा हि व्यभिचारिता । विशेषस्योक्तितश्वायं हेतोर्दोषो निवारितः ॥ ४५०॥
यदि प्रतिवादीका यह अमित्राय होय कि पुरुषप्रयत्न के अनन्तर आवारकोंके दूर हो जानेसे पूर्वकाळमें विद्यमान हो रहे कितने ही पदार्थो को अभिव्यक्ति हो जाती है और बहुतसे पदार्थोकी प्रयत्नद्वारा उत्पत्ति भी हो जाती है। जाः शब्द का अनित्यपना सिद्ध करनेमें दिया गया प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु व्यभिचारी है। इस प्रकार अनेकान्तिक होने प्रयत्नान्तरीयकस्य हेतु शर्के अनित्यपनका साधक नहीं हो सकता। प्राचार्य कहते है कि इस प्रकार हेतुका अनेकान्तिकपना यदि साधोगे तब तो हे प्रतिवादिन् ! तुम्हारे द्वारा किये गये निषेवमें भी वह अनैकान्तिक दोष समानरूपसे लग जाता है, जैसे विविमें लगा दिया है । तिज को वह तुम्हारा जाति उठाना भी स्वपक्षका साधक नहीं है । न्यायसूत्र है कि " प्रतिषेधेऽपि समानो दोषः " तुम प्रतिवादीका प्रतिषेध भी किसी शबके अनित्यपनका तो निषेध कर देता है । और किसी किसी घटके अनित्यपनका निषेध