Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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नहीं कर देता है । अतः विधिके समान निषेध में भी व्यभिचार दोष समान है। विशेष करनेवाले हेतुके कथनसे यह दोष निवारित किया जा सकता है । जिस प्रकार तुम अपने ऊपर आये हुये व्यभिचारका वारण करोगे, उसी ढंगसे हम भी व्यभिचारदोषका निवारण कर देंगे । अर्थात्जिस प्रकार तुम प्रतिवादी यों कह सकते हो कि शब्दको अनित्यपनके पक्षमें प्रयत्नके अनन्तर शब्दका उत्पाद है, अभिव्यक्ति नहीं है, वैयायिकोंके पास इसका निर्णायक कोई विशेष हेतु नहीं है । उसी प्रकार हम नैयायिक भी प्रतिवादीके ऊपर यह भर्त्सना उठा सकते हैं कि तुम्हारे शब्द के नित्यपक्ष में भी प्रयत्नके अनन्तर शब्दकी अभिव्यक्ति है, उत्पत्ति नहीं हैं, इसमें भी निर्णयजनक कोई विशेषक नहीं है । अतः दोनों पक्षों में विशेष देतुके नहीं होने से व्यभिचार दोष बन बैठता है ।
एवं भेदेन निर्दिष्टा जातयो दिष्टये तथा । चतुर्विंशतिरन्याश्चानंता बोध्यास्तथा बुधैः ॥ ४५१ ॥ नैताभिर्निग्रहो वादे सत्यसाधनवादिनः । साधनाभं ब्रुवाणस्तु तत एव निगृह्यते ॥ ४५२ ॥
इस प्रकार भिन्न भिन्नपने करके ये चौवीस जातियां शिष्यों के उपदेशके लिये दिङ्मात्र
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( इशारा ) कथन कर दी गयी हैं । तिसी प्रकार अन्य भी अनन्त जातियां विद्वानोंकरके समझा देनी चाहिये । जितने भी संगतिहीन, प्रसंगहीन, अनुपयोगी, असत्, उत्तर हैं । वे सब न्यायसिद्धान्त अनुसार जातियों में परिगणित हैं । श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि इन चौवीस या असंख्यों जातियोंकर के वाद में समीचीन हेतुको बोलनेवाले वादीका निग्रह ( पराजय ) नहीं हो पाता है । नैयायिकोंने वादमें जाति प्रयोग करना माना भी नहीं । हो, जो वादी स्वपक्षसिद्धि के लिऐ हेत्वाभासको कह रहा है, उस बादीका तो उस हेत्वाभासका सत्यपान कर देनेसे ही निग्रह कर दिया जाता है । अतः जातियों के लिए इतना घटाटोप उठाना उचित नहीं है । असमीचीन उत्तरों का कहांतक प्रत्याख्यान करोगे ।
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निग्रहाय प्रकल्प्यते त्वेता जल्पवितंडयोः । जिगीषया प्रवृत्तानामिति योगाः प्रचक्षते ॥ ४५३ ॥ तत्रेदं दुर्घटं तावज्जातेः सामान्यलक्षणं । साधम्र्येणेतरेणापि प्रत्यवस्थानमीरितम् ॥ ४५४ ॥