Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 554
________________ ताचार्यश्लोकवार्तिके प्रयत्नानंतरं तावदात्मलाभः समीक्षितः । कुंभादीनां तथा व्यक्तिव्यवधानव्यपोहनात् ॥ ४४५॥ तबुद्धिलक्षणात् पूर्व सतामेवेत्यनित्यता। प्रयत्नानन्तरं भावान शद्वस्याविशेषतः॥ ४४६ ॥ " प्रयत्नकार्यानेकत्वात्कार्यसमः " जीवके प्रयत्नसे सम्पादन करने योग्य कार्य अनेक प्रकारके होते हैं । इस ढंगसे प्रतिषेध उठाना कार्यसमा नामक जाति कही गयी है। उसका उदाहरण यों है कि मनुष्य के प्रयत्न द्वारा उत्पत्ति होनेसे शब्द के अनित्यपनकी वादी विद्वान् सिद्धि करता है कि कार्यका अर्थ अभूस्खाभवन है। पूर्व कालोंमें शब्दका सद्भाव नहीं होकर पुनः जविप्रयत्नके अनन्तर शद्वका बाम काम हो रहा है । जैसे कि घटादिक कार्य पहिले होते हुये नहीं हो रहे हैं। किन्तु पहिले नहीं होकर अपने नियत कारणों द्वारा नवीन रूपसे उपज रहे हैं । उसी प्रकार कण्ठ, ताल, आदि कारणोंसे नवीन उपज रहा शब्द अनित्य है । इस प्रकार वादी द्वारा व्यवस्था कर चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि प्रयत्नके अनेक कार्य हैं। प्रथम तो कुभल मादिके प्रयत्न किये पीछे घट आदि कार्योंका आत्मलाभ हो रहा भळे प्रकार देखा गया है । दूसरे व्यवहित पदार्थोके व्यवधायक अर्थका प्रयत्न द्वारा पृथक्करण कर देनेसे उनकी तिस प्रकार अभिव्यक्ति होना भी देखा जाता है । जैसे कि पाषाणको छेनी द्वारा उकेर देनेसे प्रतिमा व्यक्त हो जाती है। मही निकाल देनेसे कुआ ( आकाशस्वरूप ) प्रकट हो जाता है। किवाडके काठको छोड़ देनेसे गर्भ कील प्रकटित हो जाती है । जो कि दो तखतोंको जोडने के लिये भीतर प्रविष्ट की गयी थी। मतः द्वितीय विचार अनुसार संभव है कि शद भी पुरुष प्रयत्नसे उत्पन्न किया गया नहीं होकर नित्य सत हो रहा व्यक्त कर दिया गया होय प्रयत्न द्वारा शब्दकी उत्पत्ति हुई अथवा अभिव्यक्ति हुई है। इन दोनों मन्तन्योंमेंसे एक अनित्यपनके आग्रहको ही रक्षित रखने में कोई विशेष हेतु नहीं है। उन शद्रोंका श्रावणप्रत्यक्ष होना इस स्वरूपसे पहिले मी विद्यमान हो रहे शब्दोंका सद्भाव ही था। ऐसी दशा में प्रयत्नके अनन्तर शद्वाकी उत्पत्ति हो जानेसे अनित्यपना कहते रहना ठीक नहीं है । जब कि शब्दके उत्पादक और अभिव्यजक कारणोंसे शब्दकी उत्पत्तिमें और अभिव्यक्ति में कोई विशेषता नहीं दीखती है। इस प्रकार कार्यकी अविशेषतासे कार्यसम प्रत्यवस्थान उठाया जाता है । वृत्तिकार कार्यसम जाति के लक्षणसूत्रका अर्थ यों भी करते हैं कि प्रयत्नोंके कर्तव्य यानी करने योग्य तिस प्रकारके प्रयत्नोंके अनेक भेद है । अतः पूर्वमें कही गयी तेईस जातियोंसे न्यारी असत् उत्तररूप अन्य मी जातियां हैं। आकृतिगण होनेसे इस कार्यसमाके द्वारा सूत्रमें नहीं कही गयी अन्य जातियोंका भी परिग्रह हो जाता है । जैसे कि प्रतिवादी यों विचार करता रहे कि

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