Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 553
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ५१ Inorammmmm अथवा क्या कुछ देरतक ही अवस्थित रहता है ! इस प्रकार प्रश्न उठाना मी असम्भव दोष युक्त है । अर्थात्-स्वकीय कारणक्टसे पदार्थ जब उत्पन्न हो जायगा, तमीसे अबस्थान कालतक उसके धर्म उस पदार्थमें प्रतिष्ठित रहते हैं। किन्तु जो वस्तु अनादिसे अनन्तकालतक स्थित रहती है, उसीके कुछ धर्म मळे ही सर्वदा अवस्थित रहें । उपादान कारण और निमित्तकारणोंसे उत्पन हो रहे शब्दमें धौके सर्वकाढतक ठहरनेका प्रश्न उठाना ही असम्भव है। दूसरी बात यह भी है कि जातिवादीके यहां इस प्रकार उनका आधार आधेयभाव भी नहीं बन सकता है। क्योंकि नित्य पदार्थमें भनित्यपमेका ब्याघात है। और अनित्यमें नित्यपनका व्याघात है। तीसरी बात यह भी है कि एक ही वस्तुमें सर्वदा नित्यपन और अनित्यपन धर्मोको अमीष्ट करनेपर न्यायसिद्धान्त अनुसार विरोध दोष लग जाता है। एक धीमें नित्यपन और अनित्यपन दो धर्मोके रहनेका विरोध है। अतः तुम जातिवादीने जो कहा था कि अनित्यपन धर्मका नित्य सद्भाव बमा रहनेसे शब्द नित्य ही है । वह तुम्हारा कथन दूषणामाटरूप है । तिस कारणसे निर्णय किया जाता है कि व्यर्थ ही जीतने की अत्यधिक तृष्णा रखनेवाले अवाच्य वाचाळ दूसरे जातिवादियों करके शब्दमें प्रतिष्ठित हो रही अनित्यताका नित्यपनके प्रत्यवस्थान उठानेसे निराकरण नहीं किया जा सकता है। "न हि भैषज्यमातरेच्छानुवर्ति " । असंगत, बिरुद्ध, व्याघातयुक्त और असदुत्तर ऐसे अवाच्य वचनोंकी सडी लगा देनेसे किसीको जय प्राप्त नहीं हो सकता है। अतः प्रतिवादीद्वारा नित्यसमारूप प्रतिषेध उठाना असदुत्तररूप जाति है । प्रतिवादीने शब्दके अनित्यत्वमें सर्वदा स्थित रहने और सदा नहीं स्थिर रहने इन दोनों पक्षोंमें जैसे शब्दके नित्यपनका आपादन किया है, उसी प्रकार दोनों पक्षों में शब्दका अनित्यपम मी साधा जा सकता है। बात यह है कि सर्वकाल इसका अर्थ जबसे शब्द उत्पन्न होकर जितमी देरतक ठहरेगा, उतना समय है, अतः सर्वदा शब्दमें अनित्यपन धर्म रखने पर भी शब्दका अनित्यपन अक्षुण्ण रहता है, और कदाचित उत्पन्न हो रहे शब्दमें कभी कभी अनित्यत्वके ठहर जानेसे भी अनित्यपन धर्म अविकल बन जाता है । धीके अनित्य होनेपर धर्मों में अनित्यपना सुलभ सिद्ध है। अतः नित्यसम जातिवादीका पराजय अवश्यम्भावी है । असदुत्तरोसे केवल मूर्खता प्रकट होती है। अथ कार्यसमा जातिरभिधीयते। नित्यसमा जातिके अनन्तर न्यायसिद्धान्त अनुसार अब चौबीसवीं कार्यसमा जातिका सदाहरणसहित लक्षण कहा जाता है। प्रयत्नानेककार्यत्वाजातिः कार्यसमोदिता । नृप्रयत्नोद्भवत्वेन शद्वानित्यत्वसाधने ॥ ४४४ ॥

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