Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ ठोक वार्तिके
निरूपण कर चुकने पर कोई प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि आवरण आदिकोंके अनुपलम्मका भी तो अनुपलम्भ हो रहा है । अत: वह आवरणोंका अनुपलम्भ ही नहीं माना जाय और ऐसी दशामें आवरणोंका सद्भाव हो जानेसे पूर्वका कमें शद्वके होते संते ही उन आवारकोंसे आवृत हो जाके कारण उस समय पूर्वकालमें शद्बका सुनना नहीं हो सका है। वस्तुतः शङ्ख उस समय विथमान था । उसके आवरण आदिकोंके अभावकी भछे प्रकार सिद्धि होनेका अभाव है । इस कारण वादीका हेतु प्रस्ताव प्राप्त अनित्य अर्थकी विधि करनेमें ही स्वयं भके प्रकार वर्णमायुक्त नहीं हुआ। वादीने जो यह प्रतिज्ञा की थी कि उच्चारणके पहिले विद्यमान माने जा रहे शद्वकी अनुपलब्धि नहीं हो पाता है । अतः शद्वके नित्यपनमें कोई बाधा नहीं आती है। यों जातिको कहने वाला प्रतिवादी जम्प कर रहा है ।
तदीदृशं प्रत्यवस्थानमसंगतमित्यावेदयति ।
वह प्रतिवादीका इस प्रकार प्रत्यवस्थान उठाना संगतिशून्य है। इस बातका श्रीविद्यानन्द आचार्य आवेदन करते हैं।
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तदसंबंधमेवास्यानुपलब्धेः स्वयं सदा । नुपलब्धिस्वभावेनोपलब्धिविषयत्वतः ॥ ४२२ ॥ नैवोपलब्ध्यभावेनाभावो यस्मात्प्रसिद्धयति । विपरीतोपपत्तिश्च नास्पदं प्रतिपद्यते ॥ ४२३ ॥ शद्वस्यावरणादीनि प्रागुच्चारणतो न वै । सर्वत्रोपलभे हंत इत्याबालमनाकुलम् ॥ ४२४ ॥ ततश्चावरणादीनामदृष्टेरप्यदृष्टितः ।
सिद्धपत्यभाव इत्येष नोपालंभः प्रमान्वितः ॥ ४२५ ॥
वह प्रतिवादीका कहना पूर्वापर सम्बन्धसे रहित ही 64 I अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धेरहेतुः " इस गौतमसूत्र के अनुसार उक्ष जातिका दूषणामासपना या असमीचीन उत्तरपना यों है कि आवरण आदिकोंकी अनुपलन्धि ( पक्ष ) नहीं है ( साध्य ), अनुपलम्भ होनेसे ( हेतु ) इस प्रकार प्रतिवादीके अनुमानमें दिया गया अनुपलम्भ हेतु सद्धेतु नहीं है। जिस कारणसे कि अनुपस्वरूप स्वभावकर के सदा अनुपलब्धि स्वयं उपब्धिका विषय हो रही है, अतः उपलब्धि स्वरूप हो रही आवरण आदिकों को अनुलपिके अभावसे आवरणानुपलब्धिका भाव सिद्ध नहीं