Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 546
________________ ५३४ तत्वार्थ-लोकवार्तिके साध लिया जाता है, तब तो घटके सत्व, प्रमेयस्व, आदि रूप साधर्म्य सम्भवनेसे सब पदार्थोके भनित्यपनका प्रसंग हो जायगा। इस ढंगसे प्रत्यवस्थान उठाना अनित्यसम नामका प्रतिषेध है। सबको अनित्यपना हो जानेसे वादीके हेतुमें व्यतिरेक घटित नहीं होगा, यह प्रतिवादीका अभिप्राय है। दृष्टान्तके जिस किसी भी साधर्म्य करके सम्पूर्ण वस्तुओंके साक्ष्य सहितपनका मापादन करमा अनित्यसमा है। कोई विद्वान् वैध→से भी तुल्यधर्मकी उपपत्ति हो जानेसे अनित्यसम आतिका उठाया जाना स्वीकार करते हैं। जैसे कि बाकाशके वैधर्म्य हो रहे कृतकपनेसे यदि शब्द बनित्य है, तो तिसी प्रकार आकाशके वैधर्म्य आकाशभिन्नस्व, शद्वसमवायिकारणविककत्व, आदिसे सर्व पदार्षीका अनित्यपना प्रसक्त हो जाओ । यो माननेपर लक्षण सूत्रमें कहे गये साधात् के स्थानपर " यस्किचिद् धर्मेण " जिस किसी भी धर्म करके ऐसा कह देना चाहिये यों उपसंख्यान कर अनु. पलब्धिसमाका पेट बढ़ाना चाहते हैं । आस्तां तावदेतत् । एतच सर्वमसमंजसमित्याह। प्रतिवादीको बनित्यसमा जाति रूप यह सब कथन नीतिमार्गसे बहिमूर्त है। इस बातको मीषिधानन्द भाचार्य वार्तिकों द्वारा कहते हैं। निषेधस्य तथोक्तस्यासिद्धिप्राः समत्वतः । पक्षणासिद्धिनासेनेत्यशेषमसमंजसं ॥ ४२९ ॥ " साधादसिद्धेः प्रतिपेयासिद्धिः प्रतिषेधासाधाच " असिद्धिको प्राप्त हो रहे प्रतिषेण्य पक्षक साधर्म्यसे प्रतिवादी द्वारा तिस प्रकार कहे गये निषेधकी भी असिदि होमा समानरूपसे प्राप्त हो जाता है। अर्थात्-यदि जिस किसी भी ऐरे मेरे साधर्म्यसे सबको साम्यसहितपनका थापादन करनेवाले तुमको साधर्म्यका असाधकपना अभीष्ट है, तब तो तुम्हारे द्वारा किये गये शब्द संबन्धी जानित्यपमके प्रतिषेधकी भी बसिद्धि हो जायगी। क्योंकि उस प्रतिषेधकी भी वादीके प्रतिषेध्यपक्षके साधर्म्य करके प्रवृत्ति हो रही है । तुम प्रतिवादी करके यही तो साधा जाता है कि कृतकस्वहेतु (पक्ष ) शब्दमें बनित्यत्वका साधक नहीं है ( साध्य ) , घट दृष्टान्तके साधर्म्यरूप होनेसे (हेतु) बरख, प्रमेयत्व भादिके समान ( अन्षय दृष्टान्त ) इस प्रकार प्रतिषेध कर रहे अनुमानमें दिया गया तुम्हारा हेतु जैसे तुम्हारे प्रतिषेध्य हो रहे मेरे हेतु कृतकपन और सबके साथ साधर्म्यरूप है, तिसी प्रकार यह भी कहा गया हेतु भी हेतुपनसे साधर्म्य रखता हुआ साधक नहीं हो सकेगा। ऐसी दशामें तुम्हारा प्रतिषेध करना ही विपरीत ( उलट ) पडा । पीछे विमुख ( उल्टा मुख ) कर दी गयी तोपके समान यह प्रतिवादीका प्रयास स्वपक्षघातक हुमा । अतः प्रतिवादीका बनिस्य. सम जाति उठाना न्याय उचित नहीं है।

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