Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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अनित्येन घटेनास्य साधयं गमयेत्स्वयं । सत्त्वेन साम्यमात्रस्य विशेषाप्रतिवेदनात् ॥ ४२७ ॥ इत्यनित्येन या नाम प्रत्यवस्था विधीयते । सात्रानित्यसमा जातिर्विज्ञेया न्यायबाधनात् ॥ ४२८ ॥
प्रतिवादी कहता है कि शद्वका घटके साथ कृतकत्व, उत्पत्तिमत्त्व, प्रयत्नजन्यस्व मादि करके हो रहा साधर्म्य यदि वादीके यहां शद्बके भनित्यपनको साध देवेगा तब तो सम्पूर्ण वस्तुएँ अनित्य क्यों नहीं हो जावें। क्योंकि अनित्य हो रहे घटके साथ सत्त्व करके केवल समता हो जानेका साधर्म्य तो स्वयं सबका समझ लिया जावेगा । अतः उस सम्पूर्ण वस्तुका सत्पने करके हो रहा साधर्म्य सबका अनित्यपना समझा देवे । कोई अन्तर डालनेवाली विशेषताका निवेदन तो नहीं कर दिया गया है। इस प्रकार सबके अनित्यपनके प्रसंगसे जो प्रत्यवस्थान किया जाता है, वह यहां अनित्यसमा है। लगे हाथ सिद्धान्ती कहें देते हैं कि यह अनित्यसमा जातिस्वरूप होती हुई प्रतिवादीका असत् उत्तर समझना चाहिये । क्योंकि न्यायसिद्धान्त करके उक्त कथनमें बाधा वा जाती है।
अनित्यः शरः कृतकत्वाद्घटवदिति प्रयुक्त साधने यदा कश्चित्मत्यवतिष्ठते यदि शदस्य घटेन साधाव कृतकत्वादिना कृत्वा साधयेदनित्यत्वं तदा सर्व वस्तु अनित्यं किं न गम्येत् ? सत्वेन कृत्वा साधर्म्य, अनित्येन घटेन साधर्म्यमात्रस्य विशेषामवेदादिति । तदेवमनित्यसमा जासिर्विज्ञेया न्यायेन वाध्यमानत्वात् । तदुक्तं । " सापातुल्यधर्मोपपत्तेः सर्वानित्यत्वप्रसंगादनित्यसमा ॥ इति ।
शब्द अनित्य है ( प्रतिज्ञा), कृतकत्व होनेसे ( हेतु ) घटके समान ( दृष्टान्त ) इस प्रकार अनुमानमें समीचीन हेतुका प्रयोग कर चुकनेपर जब कोई प्रतिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि शद्वका घटके साथ कृतकत्व आदि करके साधर्म्य हो आनेसे यदि शब्दका अनित्यपना साधा जावेगा, तब तो यों साधर्म्यकर सभी वस्तुएँ अनित्य क्यों नहीं समझा दी जायेंगी ! क्योंकि अनित्य घटके साथ सत्त्व द्वारा साधर्म्यको मुख्य करके केवळ साधर्म्य सर्वत्र वर्त रहा है। घटके मत्वमें या अन्य वस्तुबोंके सत्वमें कोई विशेषताका प्रतिमास तो नहीं हो रहा है। फिर सबके अनित्यपनको साधनेमें विलम्ब क्यों किया जाय ! यो प्रतिवादीके कह चुकनेपर सिद्धान्ती कहते हैं कि यह अनित्यसमा तो दूषणामास स्वरूप समझनी चाहिये । क्योंकि यह न्यायसिद्धान्तकरके बाधी जा रही है । उसी बाधित हो रही अनित्यसमाका लक्षण न्यायदर्शन में गौतमऋषिने यों कह दिया है कि साधर्म्यमात्रसे यानी घटदृष्टान्तके साधर्म्य हो रहे कृतकत्वसे तुल्यधर्म साहितपना बन जानेसे यदि शब्दमें अनित्यपन।