Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 543
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः हो पाता है। और उसकी सिदि नहीं होनेपर विपरीत हो रहे आवरण सद्भावकी सिद्धि हो जाना कैसे मी प्रतिष्ठा स्थानको प्राप्त नहीं कर सकता है। उच्चारण से पहिले शब्दको या उसके आवरण बादिकोंको मैं नियमसे सर्वत्र नहीं देख रहा हूं, इस प्रकारका बालक, गंवार, ली या पशुओंतकको 'याकुलतारहित अनुभव हो रहा है। तिस कारण हर्षके साथ कहना पडता है कि आवरण आदिकोंकी अनुपलब्धिको मी अनुपकन्धिसे बावरण अनुपलब्धिका अभाव सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार यह प्रतिवादीकरके उपासम्म दिया जामा प्रमाबुद्धिसे अन्धित हो रहा कार्य नहीं है। न विद्यमानस्य शमस्य मागुचारणानुपाब्धिरावरणाचनुपलब्धेरित्युपपत्तेर्यत्कस्यविस्मत्यवस्थानं सदापरणादीनामनुपकब्धेरप्यनुपर्कभात् सैवावरणायनुपलब्धिर्मा भूत् ततः शवस्य मागुच्चारणात् सत एवाश्रवणं तदावरणाधभावसिद्धरभावादापरणादिसद्भाषादिति सम्बन्परहितमेषानुपबम्बेः सर्वदा स्वयमेवानुपलंभस्वभावत्वादुपहन्धिविषयत्वात् । ययेवमुपसम्धिविषयस्तथानुपलब्धिरपि। कथमन्यथास्ति मे घटोपलब्धिर्नास्ति मे पटोपलब्धि रिति संवेदनमुपपद्यते यतवमावरणायनुपसन्धेरनुपर्कभावाभावः सिध्यति तदसिदौ प विपरीवस्यावरणादिसद्भावस्योपपत्तिश्च नास्पदं प्रतिपद्यते । उक्त कारिकाओंका विवरण इस प्रकार है कि उच्चारणके प्रथम नहीं विद्यमान हो रहे हो शहका अनुपलम्म है । विधमान हो रहे शब्दका अदर्शन नहीं है। क्योंकि भावरण आदिकी उपउन्धि नहीं हो रही है। इस प्रकार स्वीकार करनेवाले वादीके बिये जिस किसी भी प्रतिवादीकी बोरसे यों प्रत्यवस्थान उठाया जाता है कि उस शदके आवरण, अन्तराज, आदिकोंके अदर्शनका भी बदर्शन होते रहनेसे वह भावरण गादिकोंकी अनुपलब्धि ही नहीं हो । विस कारण उच्चारणसे पहिले विधमान हो रहे ही शहका सुनना बावरणवश नहीं हो सका है। अनादिकालसे अप्रति. हत पछा बा रहा शब्द सर्वदा सर्वत्र विषमान है । उसके बावरण मादिकोंके अभावकी सिद्धिका जमाव हो जानेसे भावरण मादिकोंका सद्भाव सिद्ध हो जाता है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार प्रतिवादीका कपन करना उन्मत्तप्रकापफे समान सम्बन्ध रहित ही है । "नासंगतं प्रयुजीत" नक कि बनुपलब्धि स्वयं अनुपळम्भ स्वभाववाली है, वह अनुपलब्धि उस स्वभावकरके सदा उपलब्धिका विषय हो रही है । जिस प्रकार ज्ञानके द्वारा विषय होती हुई उपलब्धि जांनी माती है, उसी प्रकार अनुपलब्धि भी जानकरके उपलम्भ कर ली जाती है। यदि ऐसा नहीं मान कर दूसरे प्रकारोंसे मानोगे तो मुझको घटकी उपलब्धि है, और मुझे पटकी उपलब्धि नहीं है। अथवा मुझे घटकी उपलब्धि हो रही है। और उस घटकी अनुपलब्धि तो नहीं हो रही है। इस प्रकारका बाल, पद्धतकमें प्रसिद्ध हो रहा सम्बेदन भला कैसे युक्तिपूर्ण सिद्ध हो सकेगा। जिससे कि पह प्रतिवादीका कथन शोमाको प्राप्त हो सके कि " इस प्रकार भावरण आदिकोंकी अनुपलब्धिके

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