Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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हेतुके
कहा है कि उन आवरण आदिकोंकी अनुपलब्धि नहीं दीख रही है । अतः अनुपलम्भ होने से इस अनुपलब्धिका अभाव सिद्ध हो जाता है । अभावकी सिद्धि हो चुकनेपर नहीं रहने से उसके विपरीत आवरण आदिकोंका अस्तित्व जान लिया जाता है। अतः जो वादीने कहा था कि उच्चारणके पहिले शद्व विद्यमान नहीं है । इस कारण उसकी उपलब्धि नहीं हो पाती है । यह वादीका कथन सिद्ध नहीं हो सका है। दूसरी बात यह भी है कि जैसे आवरण के अनुपलम्भ प्रत्येक आत्मामें जाने जा रहे हैं, उसी प्रकार आवरणोंकी अनुपलब्धि के अनुपलम्भ भी प्रत्यक्ष आत्मक संविदित हो रहे हैं । " तदनुपढब्धेरनुपलम्भादावरणोपपत्तिः " अनुपलम्भादप्यनुपलब्धिसद्भाववन्नावरणानुपपत्तिरनुपलम्भात् तथा जिस प्रकार नहीं दीखते हुये आवरणोंकी अनुपलब्धिसे उनका अभाव मान लिया जाता है, उसी प्रकार अनुपलभ्यमान हो रही आवरणानुपलब्धिका अभाव भी जान दिया जाता है । एतावता आवरणोंका सद्भाव सिद्ध हो जाता है । यतः शद्वको निस्य अभिप्रेत करने are प्रतिवादीका यह अनुपलब्धिसम नामका प्रतिषेध है ।
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कथमिति श्लोकैरुपदर्शयति ।
उस अनुपसिम प्रतिषेधका उदाहरण किस प्रकार है ! ऐसी प्रेक्षा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य लोकों द्वारा उसको दिखाते हैं ।
यथा न विद्यमानस्य शद्वस्य प्रागुदीरणात् ।
अश्रुतिः स्यात्तदावृत्याद्यदृष्टेरिति भाषिते ॥ ४१९ ॥ कश्चिदावरणादीनामदृष्टेरप्यदृष्टितः ।
सैव मा भूत्ततः शद्धे सत्येवाऽश्रवणात्तदा ॥ ४२० ॥ वृत्याद्यभावसंसिद्धेरभावादिति जल्पति । प्रस्तुतार्थविधावेव नैव संवर्णितः स्वयं ॥ ४२१ ॥
अनुपलब्धिसमा जातिका निदर्शन जिस प्रकार नैयायिकोंने दिखाया है, वह यों है कि उच्चारण, बजना, गर्जना, आदिके पूर्वकालमें शुद्ध विद्यमान नहीं, अतः विद्यमान हो रहे शद्वकी अनुपलन्धि महीं । यानी अभाव होते हुये ही शद्रका पहिले काढमें अश्रवण हो रहा है। क्योंकि उस दृश्य शद्वकी अनुपलन्धिके कारण सम्भबनेवाले आवरण, असन्निकर्ष, व्यवधान, आदिका मी महण नहीं हो रहा है। इस कारण यह कारणोंसे उपजने योग्य शब्द अपनी उत्पत्तिके पहिले समयों में विद्यमान ही नहीं है, तब उपलम्भ किसका होय। घटकी उत्पत्तिके पहिले घट नहीं दिखला है । और उसके आवरण मीत, बन, झोंपडी आदि भी नहीं देखते हैं । इस प्रकार वादी द्वारा
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