Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 539
________________ तत्वाचन्तामणिः ५२७ अभावस्य विपर्यासादुपपत्तिः प्रकीर्तिता। प्रस्तुतार्थविषातायानुपलब्धिसमानधैः ॥ ४१८ ॥ जिस कारण कि उच्चारणसे पहिले शब्दका उपलम्भ नहीं होता है। यदि कथमपि उच्चारण के प्रथम तिरोभूत हो रहे शब्दका सद्भाव मान भी लिया जाय तो बावरण आदिसे उस शब्दकी उपलब्धि नहीं होना माना आयगा । किन्तु यह तो बनता नहीं है। क्योंकि अनुपलब्धिके कारण आवरण आदिकोंका ग्रहण नहीं होता है । अर्थात्-इस वायु श्रादिकरके ढक रहा शब्द बोलनेके पहिले पहिले सुनाई नहीं पडता है। या श्रोत्र इन्द्रियके साथ शब्दका सन्निकर्ष पूर्वकालमें नहीं हो सका है। अथवा उच्चारणके पहिले शब्दका इन्द्रियके साथ व्यवधान था । पहिले शब्द सूक्ष्म था। इत्यादिक इन युक्त अनुपलब्धिके कारणों का प्रण नहीं हो रहा है। अतः उच्चारणसे पूर्वमें शब्द नहीं हैं । आत्माके बोलने की इच्छाके साथ प्रतिघात ( धक्का लगना) हो जाना ही शब्दका उच्चारण है । न्यायसिद्धान्तके अनुसार लौकिक, वैदिक, या अभाषात्मक, घनगर्जन बादिक समी शब्द अनित्य माने गये है। किन्तु मीमांसक शन्दोंको नित्य मानते हैं । उन्धारणके पूर्वकालोंमें भी शब्द अक्षुण्ण विद्यमान हैं। अभिव्यंजक कारणोंके नहीं मिलनेसे उसका श्रावणप्रत्यक्ष नहीं हो पाता है। इसका नैयायिक खण्डन कर देते हैं कि " प्रागुच्चारणाचनुपलब्धेरावरणाचनुपलब्धेच" पहिले समयोंमें उच्चारण आदिकी अनुपलब्धि हो रही है और बावरण अादिकी अनुपलब्धि हो रही है। यदि शन्द नित्य रोता तो उग्चारणसे पहिले भी श्रोत्रके साथ सन्निकर्ष हो जानेसे सुनाई पडता । कोई यहां प्रतिबन्धक तो नहीं है। यदि कोई प्रतिबन्धक है, तो उमका ही दर्शन होना चाहिये । किन्तु बावरण आदिकोंकी अनुपलब्धि है । नैयायिकके यहा माने गये अमूर्त, अक्रिय, शब्दका अन्य देशोंमें उस सयय चला जाना भी तो नहीं सम्भवता है। अतीन्द्रिय अनन्त प्रतिबंधक व्यंजक, भावारके या भावारकोंके अपमायक आदिकी कल्पना करनेकी अपेक्षा शब्दके बनिस्यपनकी कल्पना करनेमें ही लाघव है । अतः व्यंजक कारणके नहीं होनेसे शब्दका अग्रहण नहीं है। किन्तु अभाव होनेसे ही उच्चारणके प्रथम काळमें शब्दका श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं हो सका है। तिस कारण विद्यमान शब्दकी अनुपलब्धि नहीं है । उस अनुपलब्धिका अच्छा साधन करते संते निषेध करने योग्य शमकी अनुपलब्धिसे पूर्वकालीन शब्इके ममावका वादी द्वारा साधन कर चुकनेपर जातिवादी प्रत्यवस्थान उठाता है कि आवरणकी अनुपलम्धिसे आवरणका अभाव यदि सिद्ध हो जाता है, तो आवरणकी अनुपलब्धिके अनुपलम्मसे बावरणानुपकन्धिका भी अमाव सिद्ध हो जायगा । और तैसा होनेपर बावरणानुपलब्धिको प्रमाण मानकर जो बावरणामाब नैयायिकोंने माना था, वह नहीं बनेगा । किन्तु नित्य शब्दोंके आवरणकी उच्चारण पूर्वकालमें सिद्धि हो जायगी । इस प्रकार शब्दके नित्यपनेमें कहा गया भावरणानुपलब्धिरूप बाधक उठाना वादीका

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