Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्धचिन्तामणिः
एक प्रयत्नानन्तरीयकत्व धर्मके संभव हो जानेसे पक्ष तथा दृष्टान्त हो रहे घट और शद्रका निश्पना यद्यपि अन्तररहित हो कर नियमसे सिद्ध हो चुका है, तो मी सत्यधर्मकी उपपत्ति हो जाने से सम्पूर्ण पदार्थोंके विशेषरहितपनका प्रसंग नहीं होवेगा जिससे कि सम्पूर्ण भावोंमें सद्भाव सघ मानेसे
नित्यपन प्राप्त हो जाय और ऐसी दशा में पक्षसे अतिरिक्त अन्य कोई भी उदाहरण नहीं मिल सके । विमा उदाहरण के कोई हेतु होता नहीं है। प्रतिज्ञाके एकदेशको उदाहरणपना असिद्ध है । पक्ष ही तो उदाहरण नहीं हो सकता है, यों जाति उठाई जा सके। बात यह है कि सम्पूर्ण वस्तुओंके सद्भावका निमित्त हो रहा दूसरा धर्म देखा जा रहा है । और प्रयत्नानन्तरीयकपने में निमित्त हो रहा म्यारा धर्म दीखता है । इस कारण जातिवादीका सम्पूर्ण अर्थों में सत्व होनेसे विशेषरहितपनका प्रसंग हो जानेसे प्रत्यवस्थान देनेका यह वचन प्रारंभ करना सम नहीं प्रतिभासता है । अतः वह प्रत्ययस्थान उठाना छोड देना चाहिये। इस प्रकारके विषम उपन्यास तो सभी अयों में प्रसंग प्राप्त किये जा सकते हैं । सामान्य मनुष्यपनका सद्भाव हो जानेसे सभी विद्यार्थी, श्रोता, रंक, निपट मूर्ख, सभी साधरण पुरुष भी माननीय गुरु गोपालदासजी के समान प्रकाण्ड विद्वान् बन बैठेंगे । चाहे कोई भी मनुष्य अपनेको अधिकारी, राजा, अधिपत्ति, आचार्य, मान बैठेगा । विशेष हेतुओं द्वारा अन्तरोंकी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अतः प्रतिवादी द्वारा सबके अविशेषपनका प्रत्यवस्थान उठाया जाना दूषणामास है । यह न्याय उचित मार्ग नहीं है ।
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न हि पथा प्रयत्नानंतरीयकत्वं साधनधर्मः साध्यमनित्यत्वं साधयति श तथा सर्ववस्तुनि सरखं यतः सर्वस्याविशेषः स्यात् सस्वधर्मोपपत्तितयैव धर्मोतरस्यापि नित्यत्वस्याकाशादौ सद्भावनिमित्तस्य दर्शनात् प्रयत्नानंतरीयकत्वनिमित्तस्य चाऽनित्यत्वस्य. बढादौ दर्शनात् । ततो विषमोयमुपन्यासः इति त्यज्यतां सर्वार्येष्वविशेषप्रसंगात् प्रत्यवस्थानं ।
जिस प्रकार कि हेतुधर्म हो रहा प्रयत्नानन्तरीयकपना नियमसे अनित्यपन साभ्यको शहूमें साथ देता है, तिस प्रकार सत्य धर्म तो सम्पूर्ण पदार्थोंमें विद्यमान हो रहा संता अनित्यपनको नहीं सा पाता है, जिससे कि केवल सस्य धर्मकी उपपत्ति कर देनेसे ही सम्पूर्ण वस्तुओंका विशेष रहितपना हो जाय । बात यह है सद्भावका व्यापक रूपसे निमित्त यदि अनित्यपना होता तो प्रतिबादीका प्रत्यवस्थान चढ सकता था । किन्तु आकाश, काळ, आत्मा बादिमें सद्भावके निमित्त हो रहे म्यारे धर्म नित्यपनका भी साथ दर्शन हो रहा है । और घट पट आदिमें अनित्यत्व के ज्ञापक प्रयनांतरीयकत्वके निमित्त कारण अनित्यपनका उपलम्भ हो रहा है। तिस कारण यह प्रतिबादी का अविशेषसमजाति निरूपणरूप उपन्यास करना विषम पढता है। इस कारण प्रतिवादीको संपूर्ण reमें अन्तरहितपन के प्रसंगसे प्रत्यवस्थान देनेका विचार छोड देना चाहिये । " कचिद्धर्मानुपपते: