Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
५१८
तत्वार्थ लोकपातिक
.........................
एको धर्मः प्रयत्नानंतरीयकत्वं तस्य कचिच्छन्दघटयोर्घटनादविशेष समानत्वे सत्यनित्यत्वे षादिनोररीकृते पुनः सद्भावा सर्वस्य सत्वधर्मस्य वस्तुषु घटनादविशेषस्यानित्यवप्रसंजनमविशेषसमा जातिः स्फुटं, एवंविषस्व न्यायमाप्तस्य दोषस्यासमीक्षणात् । “एकधोपपतेरविषेषे सर्वाविशेषप्रसंगात् सद्भावोपपत्तेरविशेषसम " इत्येवंविधो हि प्रतिषेधो न न्यायमाप्तः।
भ्यायसूत्र और न्यायमायके अनुसार उक्त वार्तिकोंका विवरण यों है कि एक धर्म यहां प्रयत्नान्तरीयकस्व है। कहीं पक्ष किये गये शन्द और घट माने गये दृष्टान्तमें उस धर्मके घटित हो जानेसे समानपन भविशेष होते संते वादी द्वारा शन्द और षटका भनित्यपना स्वीकार कर चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा सद्भावकी उपपत्ति होनेसे यानी संपूर्ण वस्तुगों में सब धर्मके घटित हो जानेसे सबके सद्भावको कहकर अनित्यपनका प्रसंग दिया जाना अविशेषसमा है । सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकारके न्यायप्राप्त दोषोंका समीक्षण नहीं होनेसे यह प्रतिवादीका जातिरूप उत्तर स्पष्ट रूपसे मसव उत्तर है। न्यायसूत्रमें अविशेषसमाका यह क्षण है कि विवक्षित पक्ष दृष्टान्त व्यक्तियों एक धर्मकी उपपत्ति हो जानेसे अविशेष हो जानेपर पुनः सदावकी उपपत्ति होनेसे संपूर्ण वस्तुओं के भविशेषका प्रसंग देनेसे प्रतिवादीद्वारा अविशेषसम प्रतिषेध उठाया जाता है। किन्तु इस प्रकारका बह प्रतिषेध तो न्यायप्राप्त नहीं है। अन्यायसे चाहे जिसके ऊपर चाहे जितने दोष उठा दो। किन्तु परीक्षा करनेपर वे दोष सब उड जाते हैं।
यह प्रतिवादी द्वारा दिया गया प्रतिषेध न्यायप्राप्त कैसे नहीं है। ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
प्रयत्नानंतरीयत्वधर्मस्यैकस्य संभवात् । अविशेषे ह्यनित्यत्वे सिद्धेपि घटशब्दयोः ॥ ४०४ ॥ न सर्वस्याविशेषः स्यात्सत्त्वधर्मोपपत्तिः । धर्मातरस्य सद्भावनिमित्तस्य निरीक्षणात् ॥ ४०५॥ प्रयत्नानंतरीयत्वे निमित्तस्य च दर्शनात् । न समोयमुपन्यासः प्रतिभातीति मुच्यताम् ॥ ४०६ ॥ सर्वार्थेष्वविशेषस्य प्रसंगात् प्रत्यवस्थितिः। विषमोयमुपन्यासः सर्वार्थेष्वु(पपद्यतां ॥ ४०७ ॥