Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
" उपपत्तिकारणाभ्यनुज्ञानादप्रतिषेधः " इस सूत्र अनुसार सिद्धान्ती उसका उत्तर कहते हैं कि यहां प्रतिवादी द्वारा यह प्रतिषेध करना कैसे भी युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि दोनोंके कारणोंकी उपपत्ति कह देनेसे शद्वके अनित्यपमकी निर्दोष रूपसे सिद्धि हो चुकी । जिस प्रकार के मन्तव्यको प्रतिवादी स्वयं कह रहा है, उसने शद्वके अनित्यपनको सब ओरसे स्वीकार कर ही लिया है । अनित्यपनके हेतु, उदाहरण, आदिको भी वह मान चुका है। अतः पुनः नित्यत्वको साधते हुये वह प्रतिषेध करना नहीं बनता है । अनित्यपमको मान कर पुनः अनित्यपनका निषेध नहीं किया जा सकता है । व्याघात दोष लग बैठेगा । तथा यदि प्रतिषेध करोगे तो दोनों नित्यत्व, atrah कारणोंht उपपत्ति नहीं स्वीकार की जा सकेगी । अतः जातिका लक्षण नहीं घटा । और यदि दोनोंके कारणोंकी उपपत्ति कह देनेसे शद्वके अनित्यपनका कारण बन चुकना स्वीकार कर लोगे तो प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है। अपने पक्ष हो रहे शद्बका अनित्यपन और प्रतिवादीके पक्ष प्रस्त हो रहे नित्यपन दोनोंकी सिद्धि करनेसे तो उसी प्रकार समान रूपसे व्याघात दोष आ जाता है । इस कारण वह प्रतिवादी उन दोनोंमेंसे एक पक्षका भी साधनेवाला नहीं है । इस प्रकार यह प्रतिवादी द्वारा किया गया प्रतिषेध यहां कैसे भी समुचित नहीं है । "ठोके षष्ठं गुरु ज्ञेयम् " इसकी अपेक्षा नहीं कर कथमपि पाठकर लिया जाय अथवा अनुष्टुप् श्लोकके पदोंमें छठवें अक्षरको गुरु माननेपर " कथं मतिः " पाठ बना किया जाय । विद्वान् पुरुष अन्य भी विश्वार कर सकते हैं । बादी कह सकता है कि तुझ प्रतिवादीने मेरे पक्षका दृष्टान्त दे करके मेरे पक्षका प्रामाणसहितपना स्वीकार कर लिया है । अतः मेरे ऊपर प्रतिषेध भला कैसे उठाया जा सकता है । यों कथमपि पाठ रहने दो ।
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कारणस्याभ्यनुज्ञानात् उभयकारणोपपत्तेरिति ब्रुवता स्वयमेवानित्यत्वे कारणं प्रयस्नानंतरीयकत्वं तावदभ्यनुज्ञातमनेनाभ्यनुज्ञानान्नानुपपन्नस्तत्प्रतिषेधः शद्धानित्यत्वसिद्धया उपपत्तेरविवादात् । यदि पुनर्नित्यत्वकारणोपपत्तौ सत्यामनित्यत्वकारणोपपत्तेर्व्याघातादनित्यत्वासिद्धेर्युक्तः प्रतिषेध इति मतिस्तदास्त्यनित्यत्वकारणोपपतौ सत्यां नित्यत्वकारणोपपतिरपि व्याघातान्न नित्यत्वसिद्धिरपीति नित्यत्वानित्यत्वयोरेकतरस्यापि न साधकतुल्यस्वादुभयोर्व्याघातस्य ।
कारणका अभ्यनुज्ञान करनेसे अर्थात्-सूत्र अनुसार नित्यपन अनित्यपन दोनोंके कारणोंकी उपपत्ति हो जाने से इस प्रकार कह रहे प्रतिवादीने शद्वमें अनित्यपनके कारण प्रयत्नानन्तरीयकत्वको स्त्रियं पहिले ही स्वीकार कर लिया है । यों इस प्रतिवादी करके स्वीकृत हो जानेसे पुनः उस अनित्य पनका प्रतिषेध करना नहीं सघ सकेगा। क्योंकि शद्व के अनित्यपनकी सिद्धि की उपपत्तिमें प्रतिवादीको कोई विवाद नहीं रहा है । अतः अनित्यपनका प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है । यदि फिर