Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 536
________________ ५२४ तत्वार्यश्लोकवार्तिके प्रतिवादीका यह मन्तव्य होय कि हमारे यहां प्रथमसे ही शब्दकी नित्यताके कारण अस्पर्शस्वकी उपपत्ति ( सिद्धि ) हो चुकी है । ऐसा होनेपर वादीके इष्ट शद्बानित्यत्वके कारण प्रयत्नजन्यत्वकी उप. पत्तिका व्याघात हो जाता है । अतः अनित्यपनकी प्रसिद्धि हो जानेसे मेरे द्वारा किया गया अनित्यत्वका प्रतिषेध करना युक्त है । अर्थात्-तुम्हारे यहां अनित्यपन सथ चुकनेपर पुनः उसका प्रतिषेध करनेसे मेरे ऊपर जैसे न्याषात दोष आता है, उसी प्रकार मेरे यहां शद्वका मित्यपन सधचुकनेपर पुनः अनित्यपम साधनेमें तुमको भी व्याघात दोष लगेगा । अतः में प्रतिवादी उस अनित्यपनका प्रतिषेध कर देता हूं, यह मेरा उचित कार्य है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि यो मानोगे तब तो हम भी कह देंगे कि षादीके यहां प्रथमसे ही अनित्यपमके कारणकी सिद्धि हो चुकनेपर पुनः प्रतिषादीके यहां नित्यपनके कारणकी सिद्धि व्याघात दोष हो जानेसे नहीं बन पाती है। वादीको हो प्रथम बोलनेका अधिकार प्राप्त है। अतः प्रतिवादीके अमीष्ट नित्यपनकी सिद्धि नहीं हुई। बिल्ली के समान दूधको लुङका देनेसे दोनों से किसीका भी प्रयोजन नहीं सब पाता है । इस प्रकार नित्यत्व, अनित्यत्व, दोनों से किसी एक पक्षको भी सिद्धि करनेवाला यह साधक नहीं हुआ। कारण कि दोनों भी पक्षोंमें व्याघात दोष तुल्य रूपसे मुंह वांये खडा हुआ है । ऐसी दशामें दोनों पक्षोंके सुन्द उपसुन्द न्यायसे मर जानेपर प्रतिवादी किसकी सामर्थ्यके भरोसेपर प्रतिषेध करनेके लिये उत्साह दिखा रहा है ! अतः यह प्रतिबादी द्वारा किया गया प्रतिषेध युक्त नहीं है। का पुनरुपलब्धिसमा जासिरित्याह । चौवीस जातियोंमें उपपत्तिसमा मातिके पीछे गिनाई गयी फिर उपलब्धिसमा जाति कैसी है ! उसका लक्षण और उदाहरण क्या है ! इस प्रकार श्रोताकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द भाचार्य उत्तर कहते हैं। साध्यधर्मनिमित्तस्याभावेप्युक्तस्य यत्पुनः । साध्यधर्मोपलब्ध्या स्यात् प्रत्यवस्थानमात्रकम् ॥ ४१४ ॥ सोपलब्धिसमा जातियथा शाखादिभंगजे । शद्वेस्त्यनित्यता यत्नजत्वाभावेप्यसाविति ॥ ४१५॥ शब्द भनित्य है, ( प्रतिज्ञा ) जीवके प्रयत्न करके जन्य होनेसे ( हेतु ) घटके समान, इस अनुमानमें शब्दनिष्ठ अमित्यत्वकी ज्ञाप्ति करानेका निमित्त कारण प्रयत्नजन्यत्व माना गया है। वादी द्वारा कहे जा चुके उस निमित्तके नहीं होनेपर भी प्रतिवादी द्वारा पुनः साध्य धर्मकी उपलन्नि करके जो केवळ रीता प्रत्यवस्थान उठाया जायगा वह उपलब्धिसमा जाति है । जैसे कि

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