Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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व्यभिचार दोषवाली अर्थापत्ति ( प्रमाणाभास ) करके प्रतिपक्षकी सिद्धि नहीं हो पाती है । जिससे कि वादी द्वारा प्रयत्नानंतरीयकत्व हेतुसे शद्वका अनित्यपना साध चुकनेपर भी पुनः प्रतिवादी द्वारा अस्पर्शarant अन्यथानुपपत्तिसे उस शद्वका नित्यपन सिद्ध कर दिया जावे अस्पर्शवत्व तो farmers विना नहीं हो सकता है । इस प्रकारकी यह अर्थापत्तियों सुख, संख्या, संयोग, विभाग यदि गुणों करके और गमन, भ्रमण, उत्क्षेपण आदि क्रियाओं करके अनैकान्तिक दोषवाकी हो रही है। सुख बादिमें निस्यपन नहीं होते हुये भी स्पर्शरहितपना विद्यमान है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु इन चार द्रव्योंको छोडकर शेष द्रव्य और गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव, सभी पदार्थों में स्पर्शरहितपन वर्त रहा है । अनित्य गुण आदिक व्यभिचार स्थल है । भतः अर्थापतिसे प्रतिवादीके मिज प्रतिपक्षकी सिद्धि नहीं हो पाती है । और उस प्रतिपक्षकी सिद्धि नहीं होनेपर इस ही कारणसे अर्थापत्तिसमा जाति नहीं बन सकती है। न्यायसूत्रमें अर्थापत्तिसमाका यों लक्षणसूत्र कहा है कि अर्थापत्ति करके प्रतिपक्षको सिद्धि हो जाने से अर्थापत्तिसम प्रतिषेध माना गया है । व्यभिचार होनेके कारण यह अविनाभाव रहित होनेसे प्रतिबादीकी अर्थापति तो प्रमाणामास हो गई। ऐसी दशामें वह अर्थापत्तिसमा जाति उत्थापन करना प्रतिवादीका अनुचित कार्य निर्णीत हो जाता है ।
का पुनरविशेषसमा जातिरित्याह ।
इससे आगेकी फिर अविशेषसमा जाति कौनसी है ? उसका लक्षण और उदाहरण क्या है ? ऐसी मनीषा होनेपर न्यायसिद्धान्त अनुसार शिष्यके प्रति श्रीविद्यानन्द आचार्य समाधानको कहते हैं ।
कचिदेकस्य धर्मस्य घटनादुररीकृते ।
अविशेषेत्र सद्भावघटनात्सर्ववस्तुनः ॥ ४०२ ॥ अविशेषः प्रसंगः स्यादविशेषसमा स्फुटं । जातिरेवंविधं न्यायप्राप्तदोषासमीक्षणात् ॥ ४०३ ॥
कहीं भी शब्द और घटमें एक धर्मकी घटना हो जानेसे दोनोंका विशेषरहितपना स्वीकार कर चुकनेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा सम्पूर्ण वस्तुओं के समान हो रहे सद्भाव (सस्त्र) की घटनासे सबक लेतर रहितपनका प्रसंग देना तो व्यक्तरूपसे अविशेषसमा जाति कही जावेगी । सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकारका प्रसंग देना तो जाति यानी असदुत्तर है। क्योंकि बादीद्वारा साधे गये निर्दोष पक्ष में प्रतिवादीद्वारा झूठे दोष दिखाना न्यायप्राप्त दोषोंका दिखलाना नहीं है। अर्थात् जो प्रतिवादीने दोष दिखलाया है वह न्यायमार्गसे प्राप्त नहीं होता है ।