Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 514
________________ ५०२ तत्वार्थ को वार्तिके प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु समीचीन है । प्रतिवादी द्वारा उसका प्रतिषेध नहीं हो सका है। भले प्रकार चल रहे वृषभमें आर चुभोना अन्याय है । किं चायं हेतुपको न पुनः कारको ज्ञापके च कारकवत्मत्यवस्थानमसंबद्धमेव । ज्ञापकस्यापि किंचित्कुर्वतः कारकत्वमेवेति चेत् न, क्रियाहेतोरेव कारकत्वोपपत्तेरन्यथानुपपत्तिरिति हेतोर्ज्ञापकत्वात् । कारकता हि वस्तुत्पादयति ज्ञापकस्तूत्पन्नं वस्तु ज्ञापयतीत्यस्ति विशेषः कारकविशेषे वा ज्ञापके कारकसामान्यवत्प्रत्यवस्थानमयुक्तं । | क्रियाओं के संपादक दूसरी बात हम सिद्धान्तीको यह भी कहनी है कि यह प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु ज्ञापक हेतु है । यह कारक हेतु तो नहीं है, तो फिर ज्ञापक हेतुमें कारकहेतुके समान अथवा कारक साधनों में संभवनेवाले दूषणोंका उठाना असंगत ही है । अर्थात् उत्पत्तिके पूर्वमें शद्व नहीं है । अतः प्रयत्नजन्यत्व नहीं ठहर पाया । ये सब अव्याप्ति, अन्वय व्यभिचार, आदिक तो कारक हेतुओं के दोष हैं। ज्ञापक हेतुओंके दोष तो व्यभिचार, विरुद्ध, आदिक हैं । ज्ञापकके प्रकरणमें कारकों के दोष उठाना पूर्वापर सम्बन्धकी अज्ञताको ही प्रकट कर रहा है। यदि यहां कोई यों कहे कि ज्ञापक हेतु भी कुछ न कुछ साध्यको साधना, अनुमान ज्ञानको उपजाना, हेतुज्ञप्ति कराना, आदि कार्यको कर ही रहा है । अतः ज्ञापक हेतुको भी कारकपना आपाततः सिद्ध हो ही जाता है । अब सिद्धान्ती कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि हेतुको ही कारकपना युक्तिसिद्ध है । और अन्यथा अनुपपत्ति हो जाने से यानी साध्यके बिना हेतुके सद्भावकी असिद्धि हो जानेसे हेतुका ज्ञापकपना व्यवस्थित है । कारकपना तो प्राक् असत् हो रही वस्तुको उत्पन्न कराता है और ज्ञापक तो उत्पन्न हो चुकी वस्तु का ज्ञानमात्र करा देता है। इस प्रकार इन दंड आदि करके और धूम आदि ज्ञापक हेतुओंका अंतर माना गया है । अथवा आपके कथनानुसार कुछ न कुछ क्रिया कर देनेसे ज्ञापक हेतुको विशेष जातिका कारक हेतु मान भी लिया जाय तो भी सामान्य कारकोंमें सम्भवनेवाले प्रत्यवस्थानको विशेष कारक हेतुमें उठाना उचित नहीं है। विशेष पदार्थ में सामान्यके दोष नहीं लागू होते हैं । अतः उत्पत्ति के पहिले शब्द में अनित्यत्वका साधक प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु नहीं रहा, यह दोष अवतर उचित नहीं है । किं च प्रागुत्पत्तेरप्रयत्नानंतरीयको अनुत्पत्तिधर्मको वा शब्द इति ब्रुवाणः शब्दमभ्युपैति नासतो प्रयत्नानंतरीयकत्वादिधर्म इति तस्य विशेषणमनर्थकं प्रागुत्पत्तेरिति । तीसरी बात यह भी है कि जो प्रतिवादी यों कह रहा है कि उत्पत्तिके पहिले शब्द में हेतु साध्य दोनों भी नहीं हैं। अतः शब्द प्रयत्नान्तरीयक नहीं है और उत्पत्ति धर्मवाला अनित्य भी

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