Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 520
________________ ५.८ तस्वार्थश्वोकबार्तिके AMUHIMIn.. करनेवाला अनन्तकातक ) संशय होता रहेगा। कारण कि पुरुष, स्थाणु आदिमें रहनेवाले और संशयके कारण हो रहे ऊर्ध्वता आदि साधर्म्यका कभी विनाश नहीं होनेका है । ऐसी दशा भन निर्णय कहां स्थानको पा सकेगा ! बात यह है कि केवल साधर्म्यसे संशय उपजनेपर किसी एकमें वैधम्र्यका दर्शन हो जानेसे विशेष एक पदार्थका निर्णय हो जाना समुचित हो रहा, देखा जाता है किन्तु फिर केवल धर्म्य अथवा साधर्म्य और वैधर्म्य दोनोंके द्वारा मी यदि संशय होना माना जावेगा तब तो अत्यन्त रूपसे संशय होता रहेगा और यह अत्यन्त संशय होते रहना तो प्रशंसनीय नहीं है । क्योंकि अनेकोंके समान हो रहे धर्मसे संशय हो जाता है। पयात विशेष बोके दर्शनसे संशयकी निवृत्ति होना सिद्ध है। नैयायिक या वैशेषिकोंने " अनाहार्य अप्रामाण्यज्ञानान्तस्कदित निश्चयको लौकिक सनिकर्षजन्यदोष विशेषाबम्प तपदभावप्रकारकतद्विशेष्यक बुद्रिका प्रतिबन्धक माना है। तदभावाप्रकारकतत्यकारक निश्चय की सामग्री हो मानेपर पुनः संशयकारणोंसे सदा संशय बनते रहनेका प्रतिबन्ध हो माता है। अतः संशयसमा जातिका सत्यापन करना प्रतिवादीका समुचित कर्तव्य नहीं है। अथानित्येन नित्येन साधादुभयेन या। प्रक्रियायाः प्रसिद्धिः स्यात्ततः प्रकरणे समा ॥ ३८१ ॥ भत्र प्रकरणसमा जातिके कहनेका प्रारम्भ करते हैं, नित्य और अनित्य दोनों के साथ सबर्मापन होनेसे जो पक्ष और प्रतिपक्षकी प्रवृत्ति होना स्वरूप प्रक्रियाको प्रसिद्धि होगी। तिस कारणसे वह प्रकरणके होनेपर प्रत्यवस्थान उठाया गया प्रकरणसमा जाति कही गयी है। उमाभ्यां नित्यानित्याभ्यां साधाया प्रक्रियासिदिस्ततः प्रकरणसमा नातिरवसेया " समयसापात् प्रक्रियासिदेः प्रकरणसमा " इति वचनात् । दोनों नित्य अनित्यके साधर्म्यसे जो प्रक्रियाकी प्रसिद्धि है । तिस कारणसे या प्रकरणसमा नाति समझ लेनी चाहिये । गौतम सूत्रमें प्रकरणसमका कक्षग यों कहा है कि उभयके साधर्मेसे प्रक्रियाकी सिद्धि हो जानेसे प्रकरणसमा जाति है, या प्रकरणसम मामका प्रतिषेध है। कहीं कही उभयके वैधसे भी प्रक्रियाकी सिद्धि हो जानेसे प्रकरणसम माना गया है। किमदाहरणमेतस्या इत्याह। इस प्रकरणसमा जातिका लक्षण क्या है। ऐसी जिज्ञासा होनेपर न्याय भाष्य अनुसार उत्तर देते हुये श्री विद्यानन्द भाचार्य वार्तिकोंको कहते है। तत्रानित्येन साधान्नुः प्रयत्नोद्भवत्वतः । शब्दस्यानित्यतां कश्चित् साधयेदपरः पुनः ॥ ३८२ ॥

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