Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रक्रियातनिवृत्त्या च प्रत्यवस्थानमीदृशं । विपक्षे प्रक्रियासिद्धौ न युक्तं तद्विरोधतः ॥ ३८४ ॥ प्रतिपक्षोपपत्चौ हि प्रतिषेधो न युज्यते । प्रतिषेधोपपत्तौ च प्रतिपक्षकृतिध्रुवम् ॥ ३८५ ॥ तत्त्वावधारणे चैतत्सिद्धं प्रकरणं भवेत् । तदभावेन तत्सिद्धियेनेयं प्रत्यवस्थितिः ॥ ३८६ ॥
दोनों नित्य, अनित्योंके, साधर्म्यसे प्रक्रिया की सिद्धिको कर रहे प्रतिवादीने यह तो अवश्य मान लिया है कि प्रतिवादीके इष्ट पक्षसे प्रतिकूल हो रहे वादीके पक्षकी प्रक्रिया सिद्ध हो चुकी है। अतः प्रकरणके अवसानसे तत्वोंका अवधारण करनेपर उसकी निवृत्ति से इस प्रकारका प्रत्यव. स्थान देना प्रतिवादीका युक्तिपूर्ण कार्य नहीं है । क्योंकि प्रतिवादीके विपक्ष हो रहे वादीके इष्ट अनित्यत्वमें प्रक्रियाकी सिदि हो चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा अपने द्वारा अपने पक्षकी सिद्धि मानमा उससे विरोध हो जाने के कारण उचित नहीं है । वादीके अमीष्ट और प्रतिवादीके प्रतिकूल पक्षकी सिद्धि हो चुकनेपर नियमसे प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करना उचित नहीं पडता है । हां, और यदि प्रतिवादीके गांठके प्रतिषेधकी सिद्धि हो जाय तब तो निश्चय करके वादीके निज प्रतिपक्ष (वादी का पक्ष प्रतिवादीकी अपेक्षा प्रतिपक्ष है) की सिद्धि करना नहीं बन पाता है । इसमें तुल्य बलवाला विरोध नामका विप्रतिषेध लग बैठता है। दोनोंमेंसे एक पक्षके अवधारण नहीं करनेसे तो विपरीत पक्षकी प्रक्रिया सब सकती है। यहां प्रतिवादीके तस्वका अवधारण कर चुकनेपर यह प्रतिवादीका प्रकरण सिद्ध हो सकता था। जब कि प्रयत्नानन्तरीयकत्वसे वादीके अनित्यत्व पक्षकी सिद्धि हो जानेसे उस नित्यत्व प्रतिपक्षकी सिद्धिका अभाव हो गया है, तो उन दोनोंकी प्रक्रियाकी सिद्धि नहीं हुई, जिससे कि या प्रकरणमा जाति नामक प्रत्यवस्थान समीचीन उत्तर बन सके। भावार्थ-जब दोनों विरुद्ध पक्षोंकी प्रक्रिया सिद्ध नहीं हो सकती है, तो लक्षणसूत्रके नहीं घटनेपर यह प्रकरणसम प्रतिषेध अयुक्त प्रतीत होता है । जातिका स्वयं किया गया लक्षण भी तो वहां नहीं वर्तता है।
प्रक्रियातनिवृत्या प्रत्यवस्थानमीदृशमयुक्तं, विपक्षे प्रक्रियासिद्धौ तयोर्विरोधात् । पतिपक्षमक्रियासिद्धौ हि प्रतिषेधो विरुध्यते,प्रतिषेधोपपत्तौ च प्रतिपक्षप्रक्रियासिदिाहन्यते इति विरुद्धस्तयोरेकत्र संभवः । किंच, तत्त्वावधारणे सत्यैवैतत्मकरणं सिद्धं भवेन्नान्यथा। न चात्र तत्वावधारणं ततोऽसिद्ध प्रकरणं तदसिद्धौ च नैवेचं प्रत्यस्थितिः संभवति ।