Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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बैठेंगे बौर तैसा होनेपर वादीका कहा गया हेतु तो हेतु या कुत्सित हेस्वाभासके साथ किसी भी प्रकारसे अन्तर रखनेवाला नहीं हो सकेगा। अहेतुओंसे तो साध्यकी सिद्धि नहीं हो पाती है। भावार्थपर्वतो पनिहमान धूमाव या शब्द अमित्य है, कतक होनेसे, इस अनुमानों में हेतु विचारा साध्यके पहिले. पोछे, या साथ रहेगा ! बताओ। यदि हेतु पहिले रहेगा तो उस समय वह भला किसका साधन होगा ! यदि पीछे रहेगा ! तो साधनके नहीं होनेपर यह वन्हि या अनित्यपन किसीका साध्य कहा । मायगा ! हेतु और साध्य दोनोंको युगपत् विषमान माननेपर विनिगमनाविरह हो जानेसे कौन किसका साम्य और कौन किसका साधन कहा जाय ! इसी प्रकार कारकपक्षमें भी यह प्रत्यवस्था प्रतिबादी द्वारा उठायी जा सकती है कि दण्ड, चक्र, कुलाक, आदिक कारण यदि घटके पूर्व कालमें रेंगे तब तो घटका अमाव (प्रागभाव ) होनेसे वे किसके कारण माने जा सकेंगे और घटके पीछे कालमें वर्तनेबाले दण्ड आदिक किसके कारण माने जांय या कारणोंको घटके पीछे डालनेपर पहिले वर्त रहा घट किन कारणों द्वारा बनाया जाय ! तथा समान कालमें कार्य, कारणोंकी वृत्ति माननेपर तो एकको कार्यता और दूसरेको कारणता निर्णीत नहीं हो सकती है । लोकमें माल हडपनेके लिये बहुत प्राणी वेटा, मतीजा, बननेको उद्युक्त बैठे हैं। तथा पूज्य बननेके लिये और खड़कोंकी कमाई खानेके लिये अनेक व्यक्ति पिता बनने के लिये लार टपकाते फिरते हैं । इस ढंगसे शापकपक्ष और कारक पक्षमें तीनों कालके सम्बन्धका खण्डन कर देनेसे अहेतुपन करके यह अहेतुसमा जाति है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा आहेतुसमपने करके प्रत्यबस्थान देना भी युक्तियोंसे रीता है। क्योंकि घट, पट बादि कार्यों में कुम्हार कोरिया आदि कारकों करके प्रत्यक्षप्रमाणसे ही हेतुपना सिद्ध हो चुका है। अतः जो प्रतिवादीने कहा था कि साध्यके नहीं होनेपर यह किसका साधन होगा और साधनके नहीं होनेपर यह किसके द्वारा सम्पादित हुआ साध्य कहा जायगा : सिद्धान्ती कहते हैं कि जब उन महान् प्रसिद्ध हो रहे प्रत्यक्षोंसे कार्य कारण भाष वा बाप्य शापक भावका प्रहण हो रहा है, तो उस प्रतिवादीके प्रसंगकी निवृत्ति हो जाती है। तथा निज करके आने जा रहे अमि, अनित्यपन, आदि सायोंमें प्राप्तिको करानेबाळे धुआं, कृतकत्व, बादि बापक हो रहे हेतुओंका सभी विद्वानोंको ग्रहण हो रहा है । एवं दूसरे रोगी, मछित पुरुषों में सजीवपनेकी संतानको साधनेके लिये कहे गये वचनव्यापार, उष्णस्पर्शीवशेष, माडी चलना, आदि हेतुओंसे मी परसंतानका निचय हो जाता है । अतः प्रतिवादीका उक्त प्रतिषेध करमा समीचीन उत्तर नहीं है। इसी बातको " न हेतुतः साध्यसिद्धकाल्यासिद्धिः " इस न्याय सूत्रमें बखान दिया है। तथा अप्रिम सूत्र " प्रतिषेधानुपपत्तेः प्रतिषेद्धव्याप्रतिषेधः " से उसका यह सिद्धान्त खण्डन भी कर दिया है कि इसी प्रकार तुझ प्रतिवादीका प्रतिषेध नहीं बनमेसे प्रतिषेध करने योग्यका प्रतिषेध ही नहीं हो सकता है। अर्थात्-प्रतिवादीके ऊपर बादीका प्रश्न है कि तुम प्रतिषेध करने योग्य पदार्थसे पहिले कालमें, पीछे काछमें, अथवा दोनोंके एक ही काकमें,
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