Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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अनिस्य है ( साध्य ) प्रयत्न के अव्यवहित उत्तरकालमें उत्पन्न होनेसे ( हेतु ) घटके समान (अन्वय रष्टान्त ) इस प्रकार वादी द्वारा साध्यसिद्धिके निमित्त हेतुका प्रयोग कर चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी अच्छे वास्तविक दूषणों को नहीं देख रहा संता पुनः संशयकरके प्रत्यवस्थान करता है कि पुरुष. प्रयत्न के उत्तर उत्पन्न हुये भी शब्दमें नित्य हो रहे सामान्यके साथ इन्द्रियजन्य ज्ञानग्राह्यत्व साधर्म्य है और अनित्य हो रहे घटके साथ भी प्रयत्नान्तरीयकत्व साधर्म्य है । इस कारण शब्दमें नित्यपन अनित्यपन धर्मोका संशय हो जाता है। इस कारण यह संशयसमा जाति तो सामान्य ( जाति ) और घटके ऐन्द्रियकत्व साधारणपनेकी व्यवस्थिति हो जानेपर नित्य और अनित्यके सधर्मापनसे प्रतिवादी द्वारा उठायी जाती है। किन्तु फिर एक ही सामान्यके साधर्म्यसे संशयसमा जाति नहीं उठाया जा सकी । गौतमसूत्रमें संशयसम प्रतिषेधका मूल लक्षण इसी प्रकार कहा है कि सामान्य (शद्वस्व ) और दृष्टान्त ( घट ) दोनोंके ऐन्द्रियकस्व समान होने. पर निस्य, बनित्योंके साधर्म्यसे संशयसम प्रतिषेध उठा दिया जाता है। और साधर्म्यसमा एक ही के साधर्म्यसे प्रतिषेध उठा दिया गया था। अतः दोनों जातियां न्यारी न्यारी हैं।
___अत्र संशयो न युक्तो विशेषेण दानित्यत्वसिद्धेः। तथाहि-पुरुषे शिर संयमनादिना विशेषेण निर्णीते सति न पुरुषस्थाणुसाधादुर्दत्वात्संशयस्तथा प्रयत्नानंतरीयकत्वेन विशेषेणानित्ये शने निश्चिते सति न घटसामान्यसाधादेंद्रियकत्वात्संशयः अत्यंतसंशयः । साधर्म्यस्याविनाशित्वात् पुरुषस्थाबादिगतस्पेति निर्णयः कास्पदं प्राप्नुयात् । सापयंमात्रादि संशये कचिदैधर्म्यदर्शनानिर्णयो युक्तो न पुनधासाधयंवैधाभ्यां वा संशये तथात्यंतसंशयात् । न चात्यंतसंशयो ज्यायान् सामान्यात् संशयाद्विशेषदर्शनात् संशयनिवृत्तिसिद्धः।
__ भाष्यसहित इस " साधात् संशये न संशयो वैधादुभयथवा संशयोऽत्यन्तसंशयप्रसङ्गो नित्यत्वानभ्युषगमाच सामान्यस्याप्रतिषेधः" गौतम सूत्रके मंतव्य अनुसार अब प्रन्थकार संशयसमा जातिका असतउत्तरपना बखानते हैं कि यहां प्रतिवादी द्वारा संशय उठाना तो युक्त नहीं है। क्योंकि विशेष रूपसे शब्दके अनित्यपनकी सिद्धि की जा चुकी है । उसीको यो स्पष्ट समझ लीजिये कि वहां संशय स्थळमें जैसे शिरका कम्पन करते हुये सम्हाले रहना, पावका हिलना, बादि विशेपताओं करके मनुष्यपनका निर्णय कर चुकनेपर पुनः स्थाणु और पुरुषके साधर्म्य हो रहे ऊर्ध्वतामात्रसे संशय नहीं हो पाता है । तिसी प्रकार प्रयत्न के उत्तर जन्यपने करके विशेष रूपसे शब्दके भनित्यत्वका निषय हो चुकनेपर पुनः घट और सामान्यके साधर्म्य हो हे केवल इन्द्रियकत्वसे संशय नहीं हो सकता है। फिर भी " साधरणादिधर्मस्य ज्ञान संशयकारणम् " साधारणधर्मवत् धर्मिज्ञान या मसाधारण धर्मवत धर्मिज्ञानसे संशय उपजना यदि मानते रहोगे तो अत्यन्त (अन्तको भतिकान्त