Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 517
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः तादृशेनेति सन्देहो नित्यानित्यत्वधर्मयोः । स चायुक्तो विशेषेण शद्वानित्यत्वसिद्धितः ॥ ३७७ ॥ यथा पुंसि विनिर्णीते शिरः संयमनादिना । पुरुषस्थाणुसाधम्योंर्द्धत्वतो नास्ति संशयः ॥ ३७८ ॥ तथा प्रयत्नजत्वेन नित्ये शब्दे विनिश्रिते । घटसामान्यसाधर्म्यदेंद्रियत्वान्न संशयः ।। ३७९ ।। संदेहेत्यंतसंदेहः साधर्म्यस्याविनाशतः । पुंस्थाण्वादिगतस्येति निर्णयः क्कास्पदं व्रजेत् ॥ ३८० ॥ पर, अपर, सामान्य, और घट दृष्टान्तका इन्द्रिय ज्ञान द्वारा प्रापना तुल्यरूपसे व्यबस्थित हो चुकनेपर निश्यपन और अमिध्यपनके साधर्म्यसे संशयसमा जाति हुई । नैयायिकों के यहां मानी गयी है। जैसे कि तिसी प्रकार वहां ही प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतुसे घटके समान शमें अनित्यपनका भ प्रकार शाद्वबोध कर चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी स्वयं समीचीन हो रहे दूषणको नहीं देखता हुआ संशय करके प्रत्यवस्थानका आधान करता है कि पुरुष प्रयत्न व्यापारके अनन्तर मी उत्पन्न हुये बहिः इन्द्रियजन्य ज्ञान प्राथ हो रहे शद्व में नित्य माने गये घटस्व, पटत्व, या शद्वश्व सामान्यों ( नित्य जातियां ) करके साधर्म्य है । अर्थात् जिस इन्द्रियसे जो जाना जाता है, उसमें रहनेवाला सामान्य और उसका अभाव भी उसी इन्द्रियसे जाना जाता है। इस नियमके अनुसार बट इम्य और घटत्व सामान्य दोनों चक्षु या स्पर्शन इन्द्रियसे जान किये जाते हैं । शद्वगुण और शत्रुत्व जाति दोनों कर्ण इन्द्रिय विषय हो जाते हैं। अतः शङ्खका निष्य सामान्यके साथ ऐन्द्रियकत्व साध है । तथा तिस प्रकारके प्रयत्न अनन्तर जन्य हो रहे बिनाशी (अनित्य ) घटके साथ समानधर्मापन विद्यमान है । इस प्रकार शद्वके नित्यपन, अनित्यपन धमोंमें संदेह हो जाता है । अब सिद्धान्ती संशयसमा जातिका असमीचीनपना दिखाते हैं कि संशयसमा जातिको कहनेवाले प्रतिवादीका वह संशय उठाकर प्रत्यवस्थान देना तो युक्त नहीं है। क्योंकि विशेष रूपसे प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु द्वारा शद्वके अनित्यपनकी सिद्धि हो चुकी है । जैसे कि शिरको बांधना, चलना, केशोंका बांधना सम्हालना, हाथ पैर हिलाना आदि व्यापारों करके पुरुषका विशेष रूपसे पर पुनः पुरुष और ठूंठके साधर्म्य हो रहे ऊर्ध्वता धर्मसे संशय नहीं हो पाता है । तिसी प्रकार प्रयत्न जन्यस्थ हेतु करके शद्वके अनित्यपनका विशेष रूपसे निश्चय हो चुकनेपर पुनः घट और सामान्य के साधर्म्य हो रहे ऐन्द्रियकत्व धर्मले संशय नहीं हो सकता है। यदि निर्णय हो चुकमेपर निर्णय हो चुकने 64 ५०५

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