Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 516
________________ ५०४ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके तथा अप्रयत्नानन्तरीयक शद्वमें प्रसज्य नका आश्रय करनेपर कोई अप्रयत्नजन्य भाकाशपुष्प, अश्वविषाण, बन्ध्यापुत्र आदिक सर्वथा असत् ही हैं। अब न्यायसिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार दूसरे विद्वानोंका यह कहना तो युक्तिपूर्ण नहीं है, ऐसा हम देख रहे हैं। किस प्रकारसे उनका कहना युक्तिसहित नहीं है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर हम सिद्धान्ती यों कहते हैं कि जो आपने पूर्वमें सर्वथा असत् आकाशपुष्प आदिको अप्रयत्नानन्तरीयक कहा था, वह उचित नहीं है। क्योंकि अप्रयत्नानन्तरीयकपना तो जन्मका विशेषण है। पुरुषप्रयत्नके विना अन्य कारणस्वरूप अप्रयत्नोंके अनंतर काळमें जिस पदार्थका जन्म होता है, यह अप्रयत्नान्तरीयक माना जाता है। किन्तु तुच्छ अभाव या असत् पदार्थ तो आत्मलाम नहीं करता है । अतः उसका जन्म नहीं हो पाता है। दूसरी बात यह है कि जो आकाशपुष्प सर्वथा असत् है, उसका विशेष्य भला क्या हो सकता है ! विशेष्य या विशेषण तो सद्भूत पदार्थोके हुआ करते हैं। इस कथनसे आकाश, आत्मा, परममहापरिमाण, सामान्य आदि नित्य पदार्थोंका अप्रयत्नानन्तरीयकपना खण्डित कर दिया गया समझ लेना चाहिये । कारण कि नित्य पदार्थ अप्रयत्नान्तरीयक है, इस प्रकार कहना ही उचित नहीं है। क्योंकि उस नित्य पदार्थका जन्म नहीं होता है। जीव प्रयत्नके बिना अन्य कारणोंसे जन्म ले रहे पदार्थोंमें ही प्रयत्नानन्तरीयकपना सम्भवता है । अतः तुम्हारा मध्यम पक्ष ही ठीक जचता है । यदि कोई यों कहे कि तब तो जातिका असत् उत्तररूप लक्षण यहां घटित नहीं हो पाता है । अतः यह अनुत्पत्तिसमा जाति नहीं हुई । इसपर तो सिद्धान्ती कहते हैं कि यों नहीं कहना चाहिये । क्योंकि उत्पत्तिके पहिले शब्दकी अनुत्पत्ति हो जामेसे हेतुरहित हो रहे नित्य आकाश आदि पदार्थोके साथ साधर्म्य मिल जानेसे शब्दके नित्यपनकी प्राप्तिका प्रसंग इस अमुत्पत्ति समामें प्रतिवादीद्वारा उठाया जा सकता है । किन्तु वह समीचीन उत्तर नहीं है । अनुत्पन्न तन्तुषों करके नहीं बुनना होनेसे पट नित्य नहीं हो जाता है । उसको स्पष्ट यों समझ लीजिये कि नहीं उत्पन्न हो चुके सूत तो पटके कारण नहीं हैं। यहांतक अनुत्पत्तिसमा जातिका विचार हो चुका है। सामान्यघटयोस्तुल्प ऐंद्रियत्वे व्यवस्थिते । नित्यानित्यत्वसाधात् संशयेन समा मता ॥ ३७४ ॥ तत्रैव साधने प्रोक्ते संशयेन स्वयं परः। प्रत्यवस्थानमाधत्तेऽपश्यन् सद्भूतदूषणम् ॥ ३७५ ॥ प्रयत्नानंतरोत्थेपि शब्दे साधर्म्यमेंद्रिये । सामान्येनास्ति नित्येन घटेन च विनाशिना ॥ ३७६ ॥

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