Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकषार्तिके
सत एव तु शब्दस्य प्रयत्नानंतरोत्थता । कारणं नश्वरत्वेस्ति तनिषेधस्ततः कथम् ॥ ३७३॥
उत्पत्तिके पहिले ताल आदि कारणों के अभावसे जो अनुत्पत्ति करके प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, यह दूसरे प्रतिवादीकी अनुत्पत्तिसमा नामकी जाति कही गयी समझनी चाहिये । जैसे कि शद्ध ( पक्ष ) विनाशस्वभाववाला है ( साध्य ), मनुष्यके प्रयत्न द्वारा अव्यवहित उत्तर काळमें उत्पत्ति. वाला होनेसे ( हेतु ) कदंब वृक्ष, खडुआ, घडा, कपडा आदिके समान (अन्वय दृष्टान्त ), यों वादी द्वारा साघम करनेपर कोई एक प्रतिवादी भाटोप सहित कहता है कि उत्पत्तिके पहिले नहीं उत्पन्न हो चुके शद्बमें अनित्यपनेका कारण प्रयत्न अनन्तर उपजना तो नहीं है। इस कारण यह शब्द अविनश्वर ( नित्य ) हो गया अर्थात्-उत्पत्तिके पहिले जब शद्वका कोई उत्पादक कारण ही नहीं है,तो अकारणवान् शब्द नित्य सिद्ध हो गया और ऐसी दशामें नित्य हो रहे शन्की प्रयत्न द्वारा उत्पत्ति नहीं हो सकती है, इस प्रकार यह अनुत्पत्ति करके दूषण उठाना अनुत्पत्तिहमा जाति है। सिद्धान्ती कहते हैं, जो कि असत् उत्तर है दूषणाभास है। क्योंकि प्रतिवादीने न्यायमार्गका अधिक उल्लंघन किया है । कारण कि उत्पन्न हो चुके ही धर्मी हो रहे शब्दके तिस प्रकार प्रयत्न अनन्तर भवन अथवा उत्पत्तिसहितपन ये धर्म प्रसिद्ध हो रहे सम्भवते हैं । जब कि उत्पत्तिके पहिले शद्ध ही विद्यमान नहीं है, तो यह प्रतिवादीका अनुत्पत्ति रूपकरके उलाहना देना किस अधिकरणमें ठहरेगा ! विद्यमान हो रहे ही शब्दके तो नाशशील सहितपनमें कारण हो रहा प्रयत्ननंतर उत्पाद होना हेतु सिद्ध है । तिस कारणसे उस नश्वरत्वका प्रतिषेध प्रतिवादी द्वारा कैसे किया जा सकता है ? यानी उक्त दूषण उठाना सर्वथा अनुचित है।
उत्पत्तेः पूर्व कारणाभावतो या प्रत्यवस्थितिः परस्यानुत्पत्तिसमा जातिरुक्ता भवत् "प्रागुत्पत्तेः कारणाभावादनुत्पत्तिसम " इति वचनात् । तद्यथा-विनश्वरः शन्दः पुरुषप्रयत्नोद्भवात् कदंबादिवदित्युक्ते साधने सवि पर एवं ब्रवीति प्रागुत्पत्तेरनुत्पने शन्दे विनश्वरत्वस्य कारणं यत्प्रयत्नानंतरीयकत्वं तन्नास्ति सतोयमाविनश्वरः, शाश्वतस्य च शब्दस्य न प्रयत्नानंतरं जन्मेति सेयमनुत्पत्या प्रत्यवस्था दूषणाभासो न्यायातिसंघनात् । उत्पन्नस्यैष हि शब्दधर्मिणः प्रयत्नानंतरीयकत्वमुत्पत्तिधर्मकत्वं वा भवति, नानुत्पन्नस्य प्रागुत्पत्तेः शब्दस्य चासत्वे किमाश्रयोयमुपालंभः । न अयमनुत्पन्नोऽसव शन्द इति वा प्रयत्नानंतरीयक इति वा अनित्य इति वा व्यपदेष्टुं शक्यः । शब्दे तु सिद्धमेव प्रयत्नानंतरीयकत्वं कारणं नश्वरत्वे साध्ये ततः कथमस्य प्रतिषेधः ।