Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
दोष हो जानेके कारण ही कोई दृष्टान्त नहीं हो सकता है। क्योंकि दृष्टान्त भी इनका समानवल सहितपना होनेके कारण परस्पर में "सुन्दउपसुन्द" न्याय अनुसार व्याघात और प्रतिदृष्टांत जायगा, जैसे कि यहां घट नहीं और अघट भी नहीं, ऐसा कहनेपर व्याघात है । सत्का निषेध करते ही उसी समय असतुका विधान हो जाता है । और असत्का निषेध करनेपर उसी समय सत्की विधि हो जाती है । परस्परविरुद्ध हो रहे दो धर्मोका युगपत् निषेध करना असंभव है । क्योंकि व्याघात दोष मुंह फाडे खडा हुआ है । विरुद्ध हो रहे डेठ, आकाश, इन दोनोंमें एक साथ ही दृष्टान्तपना नहीं बन पाता है । प्रतिदृष्टान्त आकाशको अदृष्टान्त माननेपर उसी समय डेल दृष्टान्तके अदृष्टान्तपनाका व्याघात ( निराकरण ) हो जाता है । क्योंकि आकाशका प्रतिदृष्टान्तपना निषेध किये जानेपर उस डेलको दृष्टान्तपना सुलभरीति से सघ जाता है । घटरहितपनका प्रत्याख्यान कर देने से
सहितपना सुलभतया रक्षित हो जाता है । तथा डेल दृष्टान्तका अदृष्टान्तपना मान चुकने पर पुनः प्रतिदृष्टान्त आकाशके अदृष्टान्तपन कथन करनेमें व्याघात दोष आवेगा, क्योंकि डेलको दृष्टान्त पना नहीं बनने पर उसी समय उस आकाशको प्रतिदृष्टान्तपना युक्तिसिद्ध हो जाता है। आकाश और डेल दोनोंका दृष्टान्तपना तो व्याघातदोष हो जानेसे नहीं बन पाता है । इस कारण प्रतिवादीको प्रतिदृष्टान्त आकाश करके प्रत्यवस्थान उठाना समुचित नहीं है । अतः यह प्रतिदृष्टान्तसमा जाति कहना प्रतिवादीका समीचीन उत्तर नहीं है ।
कारणाभावतः पूर्वमुत्पत्तेः प्रत्यवस्थितिः ।
यानुत्पत्त्या परस्योक्ता सानुत्पत्तिसमा भवेत् ॥ ३६८ ॥ शद्वो विनश्वरो मर्त्यप्रयत्नानन्तरोद्भवात् । कदंबादिवदित्युक्ते साधने प्राह कश्चन ॥ ३६९ ॥ प्रागुत्पत्तेरनुत्पन्ने शद्वेऽनित्यत्वकारणं । प्रयत्नानंतरोत्थत्वं नास्तीत्येषोऽविनश्वरः ॥ ३७० ॥ शाश्वतस्य च शब्दस्य नोत्पत्तिः स्यात्प्रयत्नतः । प्रत्यवस्थेत्यनुत्पत्त्या जातिर्न्यायातिलंघनात् ।। ३७१ ॥ उत्पन्नस्यैव शब्दस्य तथाभावप्रसिद्धितः । प्रागुत्पत्तेर्न शब्दोस्तीत्युपालंभः किमाश्रयः ॥ ३७३ ॥
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