Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
साधनके बङ्ग हो रहे पक्ष, हेतु, दृष्टान्तोंकी उत्पत्तिके पहिले मायके वापक कारणका अभाव हो नानेसे बो दूसरे प्रतिवादीके द्वारा प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, वह उसकी अनुत्पत्तिममा जाति कह दी जावेगी । गौतमऋषिने न्यायदर्शनमें ऐसा ही मूळसूत्र कहा है कि उत्पत्तिके पहिले कारण का अमाव दिखला देनेसे अनुत्पत्तिसम नामका प्रतिषेध है । उसी बातको न्यायभाष्य अनुसार उदाहरणसहित स्पष्ट यों कह देते हैं कि शब्द ( पक्ष ) विनाश स्वभाववान् है ( साध्य) पुरुषके कंठ, ताल, अभ्यन्तर प्रयत्न, बाह्य प्रयत्न आदि व्यापारोंकरके उत्पन्न होना हो जानेसे (हेतु)। कदम्ब या कटक, केयूर, घडा, आदि के समान (दृष्टान्त) इस प्रकार वादीकरके साध्यका साधन कर चुकनेपर प्रतिवादी इस ढंगसे बोलता है कि उत्पत्तिसे पहिले नहीं उत्पन हो चुके शब्दमें विनश्वरपनेका कारण जो प्रयत्नानंतरीयकत्व कहा था वह वहां नहीं है। तिस कारणसे यह शब्द अविनाशी प्राप्त हुना और अविनाशी नित्य हो रहे शब्दकी पुनः पुरुषप्रयत्न के अव्यवहित उत्तर कालमें उत्पत्ति होती नहीं है। इस कारण अनुत्पत्तिकरके दूषण देना अनुत्पत्ति प्रतिषेध है। अब न्यायसिद्धान्ती कहते हैं कि सो यह अनुत्पत्तिकरके दूषण उठाना तो प्रतिवादीकी ओरसे दूषण नहीं होकर दूषणा भास उठाना समझा जाता है । क्योंकि ऐसा कहनेवाले प्रतिवादीने न्यायमार्गका अति अधिक उल्लंघन कर दिया है । गौतम सूत्र " तथामावादुत्पन्नस्य कारणोपपत्तेन कारणप्रतिषेधः " के अनुसार समझमें आ जाता है । कारण कि उत्पन्न हो चुके ही धर्मवान् शब्दके प्रयत्नान्तरीयकत्व अथवा उत्पत्तिधर्मकत्व, ये धर्म सम्भवते हैं। नहीं उत्पन्न हुये शब्दके कोई धर्म नहीं ठहरता है । " सति धर्मिणि धर्माणां मीमांसा स्यात् "। उत्पत्तिके पहिले जब शब्द है ही नहीं तो यह प्रतिवादीकरके उलाहना किसका आश्रय कर दिया जा रहा है ! तिस प्रकार उत्पन हो चुके ही पदार्थको शब्द कहा जाता है। यह शब्द उत्पत्ति नहीं होनेपर तो सत् ही नहीं है। अनुस्पन्न शब्द असत् ही है, जो बश्वविषाणके समान असत् पदार्थ है। वह शब्द है, इस प्रकार अथवा प्रयत्नान्तरीयक है, इस प्रकार अथवा अनित्य है, इस प्रकार व्यवहार करने योग्य नहीं है । जीवितके सब साथी या सहायक हैं । नहीं पैदा हुये या मर चुकेमें कोई धर्म विधमान हो रहा नहीं कहा जाता है। हां, शब्दके उपज जानेपर तो नश्वरपने साध्यमें ज्ञापक कारण हो रहा प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु सिद्ध ही है । तिस कारण पुनः इसका प्रतिषेध भला प्रतिवादी द्वारा कैसे किया जा सकता है ! उत्पत्तिके पहिले पदार्थमें हेतुके नहीं ठहरनेसे हेस्वसिद्धि नहीं हो जाती है। अन्यथा तुम्हारे (प्रतिवादकि) हेतुका मी कहीं अमाव हो जानेसे अनिद्धि हो जायगी । इसी प्रकार पक्ष,दृष्टान्त बादिकी सिद्धि भी हो जाती है। आत्मलाभ करनेपर ही सब गुण गाये जाते हैं। कदाचित साध्यके साथ वहाँ हेतुका सद्भाव हो जानेसे ही दृष्टान्तपना बन जाता है। इसी प्रकार हेतु आदिकोंका जब कभी पक्षमें ठहर जानेसे ही हेतु बादिपना सध जाता है। पक्षमें सर्वत्र, सर्वदा, हेतु भादिकके सद्भावकी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये । अतः शदों विनश्वरपना साध्य करनेपर वादीका