Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ख्यापनीयो वर्णास्तद्विपर्ययादख्यापनीयः पुनरवर्ण्यस्तेन व]नावपेन च समा जातिवर्यसमावर्ण्यसमा च विज्ञेया । अत्रैव साधने साध्यदृष्टान्तधर्मयोविपर्यासनात् । उत्कर्षापर्षसमाभ्यां कुतोनयोर्मेद इति चेत्, लक्षणभेदात् । तथाहि-अविद्यमानधर्मव्यापक उत्कर्षः विद्यमानधर्मापनयोऽपकर्षः। वय॑स्तु साध्योऽवर्योऽसाध्य इति तत्प्रयोगाज्जातयो विभिमलक्षणाः साधर्म्यवैधयंसमवत् ।।
न्यायभाष्यकार कहते हैं कि ख्यायनीय यहां वर्ण्य है । और उसके विपरीतपनेसे अख्याप. मीय तो फिर अवर्ण्य कहा गया है । उस वर्ण्य और अवर्ण्यकरके जो समीकरण करनेके लिये प्रयोग है, वह वर्ण्यसमा और अवर्ण्यसमा जाति विशेषरूपसे जान लेनी चाहिये । यहां ही आत्मा क्रियावान् है, ऐसा साधनेपर साध्य और दृष्टान्तके धर्मके विपर्याससे उक्त जातियां हो जाती है। यदि कोई यहाँ यों पूछे कि इन जातियोंका पहिले उत्कर्षसमा और अपकर्षसमासे भेद भला किस कारणसे है ! इस प्रकार प्रश्न उठानेपर तो नैयायिकोंका उत्तर यों है कि लक्षणोंका भेद होनेसे इमका उनका भेद प्रसिद्ध ही है। उसीको स्पष्ट कर यों समझ लीजियेगा कि पक्षमें अविधमान हो हे धर्मको पक्षमें व्याप्त करनेका प्रसंग देना उत्कर्ष है। और विधमान हो रहे धर्मका पक्षसे अलग कर देना अपकर्ष है। किन्तु वर्ण्य तो साधने योग्य होता है और अवर्ण्य असाध्य है। अर्थात्-दृष्टान्तमें संदिग्धसाध्यसहितपनेका आपादन करना वर्ण्यसमा है। और पक्षमें असंदिग्ध साध्यसहितपनका प्रसंग देना अवर्ण्यसमा है। इस प्रकार इनमें अन्तर है। उन मिल लक्षणोंका प्रकृष्ट सम्बन्ध हो जानेसे नातियां भी मिन भिन्न अनेक लक्षणोंको धारती हुई साधर्म्यसम और वैधर्मासमके समान न्यारी न्यारी मानी जाती है। सभी दार्शनिकोंने मिन्न लक्षणपनेको विभिन्नताका साधन इष्ट किया है।
साध्यधर्मविकल्पं तु धर्मातरविकल्पतः । प्रसंजयत इष्येत विकल्पेन समा बुधैः ॥ ३४४॥ क्रियाहेतुगुणोपेतं किंचिद्गुरु समीक्ष्यते । परं लघु यथा लोष्ठो वायुश्चेति क्रियाश्रयं ॥३४५॥ किंचित्तदेव युज्येत यथा लोष्ठादि निष्क्रियं । किंचिन्न स्याद्यथात्मेति विशेषो वा निवेद्यताम् ॥ ३४६ ॥ न्यायभाषाकारने विकल्पसमाका लक्षण यों किया है कि साधनधर्मसे युक्त हो रहे दशान्तमें