Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थोकवार्तिके
यदि साध्यको नहीं प्राप्त होकर साध्यका साधक होगा तब तो सभी हेतु प्रकृत साध्य के साधन बन बैठेंगे अथवा वह प्रकृत हेतु अकेला ही सभी साध्यको साध डालेगा । इस प्रसंगका दूर करना वादी द्वारा अप्राप्तिका पक्ष लेनेपर असम्भव है। लोकमें भी देखा गया है कि व्यंग्य पदार्थों के साथ नहीं प्राप्त (सम्बद्ध ) हो रहा दीपक उन पदार्थोंका प्रकाशक नहीं है । इस प्रकार अप्राप्ति करके प्रत्य स्थान देना यह अप्राप्तिसमा जातिका उदाहरण समझ लेना चाहिये । किन्तु यह प्रतिवादीका उत्तर 1 समीचीन नहीं है । नैयायिक कहते हैं कि वस्तुतः विचारनेपर ये प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा, दोनों ही दूषणामास हैं। क्योंकि इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करनेका भी प्रलय हो जावेगा प्रतिवादी द्वारा किये गये प्रतिषेध में भी प्राप्ति और अप्राप्तिका विकल्प उठाकर उस प्रतिषेधकी असिद्धि कर दी जायगीय प्रतिपक्षको साधनेवाले प्रतिवादीका हेतु भी असाधक हो जायगा । बात यह है कि साध
के साथ प्राप्त हो रहे भी दण्ड, चक्र, कुलाल, आदिको घटका साधकपना देखा जाता है । तथा मारण, उच्चाटन आदि हिंसा कर्म करानेवाले अभिचार मंत्रोंको अप्राप्त हो कर भी शत्रुके लिये असाताका कारकपना देखा जाता है । " शत्रुपीडनकामः श्येनेनाभिचरेत् ” यहां बैठे बैठे हजारों कोश दूरके कार्योंका मंत्रो द्वारा साध्य कर लिया जाता है। इस प्रकार प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थोंका अन्वय व्यतिरेक द्वारा कार्यकारण भाव नियत हो रहा है । अतः प्राप्ति करके प्रतिषेध देना प्रतिवादीका अनुचित प्रयास है । ये दूषण नहीं होते हुये दूषणसारिखे दूषणाभास हैं ।
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नन्वत्र कारकस्य हेतोः प्राप्तस्याप्राप्तस्य च दंडादेरभिचारमंत्रादेश्व स्वकार्यकारितो पदर्शिता ज्ञापकस्य तु हेतोः प्राप्तस्याप्राप्तस्य वा स्वसाध्याप्रकाशिता चोदितेति न संगतिरस्तीति कश्चित् । तदसत् । कारकस्य ज्ञापकस्य चाऽविशेषेण प्रतिक्षेपोयमित्येवं ज्ञापनार्थ - स्वाश्कारकहेतुव्यवस्थापनस्य । तेन ज्ञापकोपि हेतुः कश्चित्प्राप्तः स्वसाध्यस्य ज्ञापको दृष्टो यथा संयोगी धूमादिः पावकादेः । कश्चिदप्राप्तो विश्लेषे यथा कृत्तिकोदयः शकटोदयस्येत्यपि विज्ञायते । अथायं सर्वोपि पक्षीकृतस्तर्हि येन हेतुना प्रतिषिध्यते सोपि प्रतिषेधको न स्यादुभयथोक्तदूषण प्रसंगादित्यप्रतिषेधस्ततो दृषणाभासाविमौ प्रतिपत्तव्यौ ।
यहां नैयायिकके ऊपर प्रतिवादीकी ओर लेनेवाले किसी विशारदकी शंका है कि " घटादि निष्पत्तिदर्शनात् पीडने चाभिचारादप्रतिषेधः " इस सूत्र प्राप्त हो रहे दण्ड आदिक और अप्राप्त हो रहे उच्चाटक, मारक, पीडक, अभिचार मंत्र, चुम्बक पाषाण आदिक इन कारक हेतुओंका स्वकार्य साधकपना दिखलाया गया है । किन्तु प्रतिवादीने तो स्वकीय साध्य के साथ प्राप्त हो रहे अथवा अप्राप्त हो रहे ज्ञापक हेतुओं की स्वकीय साध्यकी ज्ञापकताका प्रतिषेधरूप प्रत्यवस्थान देनेकी प्रेरणा की थी । इस कारण दृष्टान्त और दाष्टन्तिकी संगति नहीं है। हां, यदि आप ज्ञापक हेतुकी प्राप्ति, अप्राप्ति होनेपर स्वसाध्यप्रकाशकता दिखलाते तो प्रतिवादीका कहना दूषणाभास हो