Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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तिकत्वं सर्वानुमानाभावाप्रसंगश्च भवेत्, अनुमानस्यान्येन दृष्टस्यान्यत्र दृश्यादेव प्रवर्तनात् । न हि ये धूमधर्माः क्वचिदमे दृष्टास्त एव धूमांतरेष्वपि दृश्यते तत्सदृशानां दर्शनात् । ततोऽनेन कस्यचिदेतोरनैकांतिकत्वमिच्छता कचिदतुमानात्मवृत्तिं च स्वीकुर्वता तद्धर्मसदृशस्तद्धर्मोनुमंतव्य इति क्रियाकारणवायुवनस्पतिसंयोगसदृशो वाय्वाकाशसंयोगोपि क्रियाकारणमेव । तथा च प्रतिदृष्टान्तेनाकाशेन प्रत्यवस्थानमिति प्रतिदृष्टान्तसमप्रतिषेधवादिनोभिप्रायः।
अब यदि कोई यों कहें कि यह वायुका आकाशके साथ हो रहा संयोग तो क्रियाके कारण वायुवनस्पति संयोगसे केवल सादृश्य रखता है । वस्तुतः भिन्न है। क्रियाका कारण हो रहा संयोग न्यारा है। और क्रियाको नहीं करने वाला संयोग भिन्न है । इन दोनों संयोगोंकी एक जाति नहीं है । अतः प्रतिवादीद्वारा प्रतिकूल दृष्टान्त हुये निष्क्रिय आकाश करके प्रत्यवस्थान देना उचित नहीं दीखता है । सिद्धान्ती कहते हैं कि यदि इस प्रकार मानोगे तब तो कोई भी हेतु अनैकान्तिक हेत्वामास नहीं हो सगेगा । इसी बातको दृष्टान्त द्वारा यों स्पष्ट समझ लीजिये कि शब्द ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्य ), अमूर्त होनेसे ( हेतु ) सुख, घट, इच्छा, भादिके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) इस अनुमानमें दिये गये अमूर्तत्व हेतुका व्यभिचारस्थल आकाश माना गया है । किन्तु तुम्हारे विचार अनुसार यों कहा जा सकता है कि शब्दमें वर्त रहा अमूर्तस्व हेतु मिन्न है । और आकाशमें उस अमूर्तस्वके सदृश दूसरा मित्र अमूर्तत्व वर्त रहा है। ऐसी दशामें इस अमूर्तत्व हेतुका आकाशकरके व्यभिचारीपना कैसे बताया जा सकता है ! वही शब्दनिष्ठ अमूर्त यदि आकाशमें रह जाता, तब तो व्यभिचार दिया जा सकता था। तुमने जैसे वायुवृक्ष संयोग और घायु आकाश संयोग इनकी न्यारी न्यारी जाति कर दी है, वैसे ही अमूर्तत्व भी भिन्न भिन्न हैं, तो फिर केवल शब्दमें ही वर्त रहा वह अमूर्तत्व विपक्षमें नहीं ठहरा । अतः व्यभिचारहेत्वाभास जगत्से उठ जायगा । शब्दजन्य शाब्दबोध ( श्रुतज्ञान ) भी नहीं हो सकेंगे। " वृत्तिर्वाचामपर सदृशी " वचनोंका प्रवृत्तिव्यवहार दूसरे शब्दोंके सादृश्यपर निर्भर है। किन्तु तुम्हारे मन्तव्य अनुसार उपालम्भ दिया जा सकता है कि संकेतकालका शब्द न्यारा है । और व्यवहारकालका शब्द उसके सदृश हो रहा सर्वथा भिन्न है । ऐसी दशामें शब्दोंके द्वारा वाच्य अर्थको प्रतिपत्ति होना दुरूह है । तुम्हारे यहां सभी अनुमानोंके अभावका प्रसंग हो जावेगा। अनुमान तो सादृश्यसे ही प्रवर्तता है। अन्यके साथ व्याप्ति युक्त देखे हुये पदार्थका अन्यत्र दर्शनीय हो जामेसे ही अनुमान का प्रवर्तन माना गया है। रसोईघरमें अग्नि और धूम न्यारे हैं, तथा पर्वतमें वे भिन्न हैं। फिर भी सादृश्यकी शक्किसे पर्वतमें वर्त रहे धूमकरके अनिका अनुमान कर लिया जाता है। जो ही धुंएके तृणसम्बन्धपिन पत्तेसम्बन्धीपना बनकटीसम्बन्धीपन, कंडासम्बधीपन आदिक धर्म कहीं रसोई घर,