Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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४८.
तत्वाथलाकवार्तिके
यदि लोष्ठको क्रियावाम् साधने योग्य जिस प्रकार नहीं कहोगे, तब तो तिस प्रकार आत्मा भी मला कैसे क्रियावान् साधने योग्य हो सकेगा ! अर्थात्-नहीं ।
हेत्वाद्यवयवसामर्थ्ययोगी धर्मः साध्योऽवधार्यते तमेव दृष्टान्ते प्रसंजयति यो वादी तस्य साध्यसमा जातिस्तत्त्वपरीक्षकैरुद्भावनीया । तद्यथा-तत्रैव साधने प्रयुक्ते परः प्रत्यवस्थानं करोति यदि यथा कोष्ठस्तथात्मा, तदा यथात्मा तथायं लोष्ठः स्यात् सक्रिय इति, साध्यचारमा लोष्ठोपि साध्योस्तु सक्रियः इति । अथ लोष्ठ क्रियावान् न साध्यस्तामापि क्रियावान् साध्यो मा भूत, विशेषो वा वक्तव्य इति ।
___ न्यायभाष्यकार यहां साध्यका अर्थ यो निणीत करते हैं कि अनुमानके हेतु, व्याप्ति, आदिक अवयवों या उपाङ्गोंकी सामर्थ्यका सम्बन्धी हो रहा धर्म साध्य है। उसका सम यानी उस ही साध्य का जो वादी दृष्टान्तमें प्रसंग दे रहा है, तत्त्वोंकी परीक्षा करनेवाले विद्वानों करके उस वादीके उपर साध्यसमा जाति उठानी चाहिये । उसका दृष्टान्त यों हैं कि वहां ही प्रसिद्ध अनुमानमें आत्माके क्रियासहितपनको साध्य करनेके लिये हेतुका प्रयोग कर चुकीपर उससे न्यारा दूसरा वादी प्रत्यव. स्थानका विधान करता है कि जिस प्रकारका लोष्ठ है यदि उसी प्रकारका आत्मा है, तब तो जैसा मात्मा है वैसा यह डेक क्रियासहित हो जायो । दूसरी बात यह है कि यदि आत्मा साध्य है तो डेल मी यथेच्छ इस प्रकार क्रियासहित साध्य हो जाओ । अब यदि डेल कियावान् साध्य नहीं है, तो आत्मा भी क्रियावान साधने योग्य नहीं होवे । हां, आत्मा या डेलमें कोई विशेषता होय तो वह तुमको यहां कहनी चाहिये । लज्जा करने की कोई बात नहीं है।
कथमासां दृषणाभासत्वमित्याह ।
साध्यसमा और वैधर्म्यसमा जातियां दूषणाभास हैं, यह पहिले ही समझा दिया गया था । अब यह बताओ कि इन उत्कर्षसमा आदिक छल जातियोंको दूषणाभासपना किस प्रकार है ! ऐसी शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य न्यायमत अनुसार समाधानको कहते हैं।
दूषणाभासता त्वत्र दृष्टान्तादिसमर्थना । युक्ते साधनधर्मपि प्रतिषेधमलब्धितः ॥ ३५० ॥ साध्यदृष्टान्तयोर्धमविकल्पादुपवर्णितात् । वैधयं गवि सादृश्ये गवयेन यथा स्थिते ॥ ३५१ ॥ साध्यातिदेशमात्रेण दृष्टान्तस्योपपत्तितः । साध्यत्वासंभवाचोक्तं दृष्टान्तस्य न दूषणं ॥ ३५२ ॥