Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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ये जातियां समीचीन दूषण नहीं हैं। दूषणसदृश दीख रही दूषणामास हैं । इनमें दूषणाभासपना तो यों समझा जाता है कि दृष्टान्त आदिककी सामर्थ्य से युक्त हो रहे अथवा विपक्ष में देतुकी व्यावृत्ति करते हुये पक्ष में हेतुका ठहरना रूप समर्थन और दृष्टान्त आदिसे युक्त हो रहे समीचीन हेतुरूप धर्मके वादीद्वारा प्रयुक्त किये जानेपर भी पुन: साध्य और दृष्टान्तके व्याख्यान किये जा चुके, केवळ धर्मविकल्पसे तो प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है । गोतमसूत्र है कि “ किञ्चित्साधर्म्यादुपसंहारसिद्धेर्वैधम्र्म्यादिप्रतिषेधः कुछ थोडासा दृष्टान्त और पक्षका व्याप्तिसहित साधर्म्य मिल जाने से वादीद्वारा उपसंहारकी सिद्धि हो जानेसे पुनः प्रतिवादीद्वारा व्याप्ति निरपेक्ष उसके वैसे ही निषेध नहीं किया जा सकता है । जैसे कि गायमें गवय ( रोझ ) के साथ सादृश्य व्यवस्थित हो जानेपर पुनः किसी सास्ना धर्म करके हो रहा विधर्मपना तो धर्मविकल्पका कुचोथ उठाने के लिये नहीं प्राप्त किया जाता है । अतः उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अ समा, विकल्पसमा, साध्यसमा ये उठाये गये दूषण समीचीन नहीं हैं। वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, साध्यसमा, ये तीन जातियोंके असत् उत्तरपनको पुष्ट करनेवाला दूसरा समाधान भीं यों है । गौतम सूत्रमें लिखा है किं “ साध्यातिदेशाच्च दृष्टान्तोपपत्तेः” उपमान या शाब्दबोधमें वृद्धवाक्य या सहज योग्यतावश संकेतपूर्वक वाच्यवाचकशक्तिके ग्राहक वाक्यको अतिदेश वाक्य कहते हैं । केवल साध्य के अतिदेशसे ही दृष्टान्तका दृष्टान्तपन जब सिद्ध हो चुका, अतः दृष्टान्तको पुनः साध्यपना असम्भव है । इस कारण प्रतिवादीद्वारा कहा जा चुका दृष्टान्तका दूषण उचित नहीं है । दृष्टान्तके सभी धर्म पक्षमें नहीं मिल जाते हैं । वृत्तिकारके अनुसार इन दो सूत्रोंको छेऊ जातियोंमें या तीन जातियोंमें यों घटा लेना चाहिये | उत्कर्षसमामें साध्यसिद्धिके वैधर्म्य यानीं व्याप्तिनिरपेक्ष साधर्म्य मात्र से ही प्रतिबादीद्वारा प्रतिषेध यानीं अविद्यमान धर्मका आरोप नहीं किया जा सकता है । अतः शब्द में रूपसहितपन और घटमें श्रवण इन्द्रियद्वारा ग्राह्यपना अधिक नहीं धरा जा सकता है । अन्यथा प्रमेयत्वरूप असाधक धर्मके साधर्म्यसे तुम्हारा दूषण भी असमीचीन हो जायगा । प्रतिषेध को नहीं साध सकेगा । जब कि अनित्यत्वके साथ व्याप्य हो रहे कृतकत्वसे शब्द में अनित्यपनका उपसंहार कर दिया है, तो ऐसी दशामें कृतकपना तो रूपका व्याप्य नहीं है । जिससे कि शब्द में रूपका भी अधिक हो जाना आपादन किया जा सके । इसी प्रकार अपकर्ष समा प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है । जिससे कि शब्द में रूपका निषेध हो जानेसे अनित्यपनका अभाव भी ठोंक दिया जाय । यानीं गांठके अनित्यपनकी भी हानि कर दी जाय । वर्ण्यसमा में भी कुछ साधर्म्य मिल जानेसे समीचीन हेतुसे यदि साध्यसिद्धि की जा सकी है, तो तैसे हेतुसे सहितपना ही दृष्टान्तपनेका प्रयोजक है । किन्तु पक्षमें जितने विशेषणोंसे युक्त हेतु होय दृष्टान्तमें उतने सम्पूर्ण विशेषणोंसे युक्त हो रहे हेतुसे सहितपना दृष्टान्तपनका प्रयोजक नहीं है । अन्यथा तुमको भी दूषण योग्य पदार्थका दृष्टान्त करना चाहिये । वह भी दृष्टान्तके
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