Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
यिकोंके सोलह मूल तत्त्वोंको कहनेवाला " प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्ताऽवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः यह दर्शनसूत्र है। पारेकाका अर्थ कोषमें संशय माना गया है। उक्त सूत्रमें वह संशय जिसके अन्तमें पढा गया है। वह प्रमेय तत्त्व है । वह प्रमेय जिसकी आत्मा है, वह आरेकान्तात्मक हुआ । भावमें त्वल प्रत्यय करनेपर और उस पश्चमी विभक्ति डसि प्रत्ययान्त पदसे तसिल् प्रत्यय करनेपर आरेकान्तात्मकत्वतः पद बन जाता है। इसका अर्थ प्रमेयत्वात हो जाता है । यह अनुमानके हेतु धर्मका कथन किया गया है। जो इस प्रकारके साध्य धर्मसे युक्त नहीं है। यानी चित्रात नहीं है वह इस प्रकार हेतुमान् भी नहीं है, यानी आरेकान्तात्मक ( प्रमेय ) नहीं है। जैसे कि कुछ भी वस्तु नहीं हो रहा खरविषाण अथवा सर्वथा एकांतवादियोंके द्वारा माना गया एकांत तत्व । ये व्यतिरेकदृष्टान्त हैं। इस प्रकार किसी पत्रमें तीन अवयव भी प्रयुक्त किये जाते हैं । तिस प्रकार हेतुवाला यह पक्ष है । इस ढंगसे पक्षमें हेतु धर्मके उपसंहारका कथन करनेपर उपनयसहित चार अवयव भी हो जाते हैं। तिस कारणसे तिस प्रकार साध्यवान् पक्ष है। यों संपूर्णको अनेकांतव्यापी कह देनेपर निगमनसहित अनुमानके पांच अवयव भी लिख दिये जाते हैं। इस प्रकारके लिखित पत्र जैनोंकी बोरसे प्रतिवादियोंके प्रति भेज दिये जाते है। नैयायिकोंकी बोरसे भी स्वपक्षसिद्धिके लिये जैनोंके प्रति यों लिखकर पत्र भेज दिया जाता है। " सैन्यलडभागनाऽनन्तरानार्थप्रस्वापकृदाऽऽशैटश्यतोऽनीट्रोनेन लड्युक्कुलोद्भवो वैषोप्पो श्यतापस्तनऽनरइलड्जुद् परापरतत्त्ववित्तदन्योऽनादिरवायनीयत्वत एवं यदीदृक्तत्सकलविद्वर्गवदेतचैवमेवं तत् " इसका अर्थ शरीर इन्द्रिया, भुवन, सूर्य आदिक किसी बुद्धिमान् कारण (ईश्वर ) से उत्पन होते हैं। कार्य होनेसे, पटके समान आदि । इस प्रकार पांच अवयवोंसे युक्त यह अनुमान है । ऐसे गूढ अर्थवाले पत्र परस्परवादी प्रतिवादियोंमें शास्त्रार्थ करनेके लिये दिये लिये जाते हैं।
तथाढ्यौ वै देवदत्तो नवकंबलत्वात्सोमदत्तवत् इति प्रयोगेपि यदि वक्तुर्नवः कंबलोस्येति नवास्य कंबला इति वार्थद्वयं नवकंवकशब्दस्याभिप्रेतं भवति तदा कुतोस्य नवकंबला इति प्रत्यवतिष्ठमानो हेतोरसिद्धतामेवोद्भावयति न पुनश्छलेन प्रत्ववतिष्ठते । तत्परिहाराय च चेष्टमानस्तदुभयार्थसमर्थनेन तदेकतरार्थसमर्थनेन वा हेतुसिद्धिमुपदर्शयति नवस्तावदेक कंबलोस्य प्रतीतो भवताऽन्येस्याष्टौ कंबला गृहे तिष्ठतीत्युभयथा नवकंबलत्वस्य सिद्धेः नासिद्धतोद्भावनीया। नवकंबलयोगित्वस्य वा हेतुत्वेनोपादानासिद्ध एव हेतुरिति स्वपक्षसिद्धौ सत्यामेव वादिनो जयः परस्य च पराजयो नान्यथा।
तथा जो वाक्छलके प्रकरणमें अनुमान कहा गया है कि देवदत्त (पक्ष ) अवश्य ही धनवान् है (साध्य ) । नव कंबलवाला होनेसे (हेतु ) सोमदत्तके समान ( दृष्टान्त ) इस अनुमान