Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
शेषा विप्रतिपत्तित्वं प्राप्नुवंति समासतः। तद्विभिन्न स्वभावस्य निग्रहस्थानमीक्षणात् ॥ ३१८ ॥
जिस प्रकार कि विप्रतिपत्ति यानी विपर्ययज्ञान और अप्रतिपत्ति यानी अज्ञानस्वरूप निग्राहकोंके भेदसे निग्रहस्थानोंका बहुतपना पूर्व प्रकरणोंमें बहुत अच्छा विस्तार पूर्वक कह दिया गया है। अनेक कल्पनाएँ करना अथवा अनेक प्रकारकी कल्पना करना यहाँ विकल्प समझा नाता है । न्याय भाष्यकार कहते हैं कि उन निग्रहस्थानोंमें अप्रतिमा, अज्ञान, अननुभाषण, पर्यनुयोग्योपेक्षण, विक्षेप, मतानुज्ञा ये निग्रहस्थान तो अप्रतिपत्तिपनको प्राप्त हो रहे हैं । अर्थात्-बारम्भके अवसरपर प्रारंभ नहीं करना या दूसरे विद्वान् करके स्थापित किये गये पक्षका प्रतिषेध नहीं करता है, अथवा प्रतिषेध किये जा चुकेका उद्धार नहीं करता है, इस प्रकारके अज्ञानसे अप्रतिमा आदिक निग्रहस्थानोंका पात्र बनना पडता है । तथा शेष बचे हुये प्रतिज्ञाहानि, आदिक निग्रहस्थान तो विपरीत अथवा कुत्सित प्रतिपत्ति होना रूप विप्रतिपत्तिपनको प्राप्त हो जाते हैं । संक्षेपसे विचार किये जानेपर उन विप्रतिपत्ति और अविप्रतिपत्ति इन दो निग्रहस्थानोंसे विभिन्न स्वभाववाले तीसरे निग्रहस्थानका किसीको भी कभी आलोचन नहीं होता है। हां, विस्तारसे भेदकथन करनेकी अपेक्षा तो अनेक निग्रहस्थानोंका विभाग किया जा सकता है । निग्रहस्थामका अर्थ पराजय प्रयोजक वस्तु या अपराधों की प्राप्ति हो जाना है । प्रतिज्ञा आदिक अवयवोंका अवलम्ब लेकर तत्त्ववादी और अतत्त्ववादी पण्डित परस्परमें वाद करते हैं। त्रुटि हो जानेपर पराजयको प्राप्त हो जाते हैं।
तत्रातिविस्तरेणानंतजातयो न शक्या वक्तमिति विस्तरेण चतुर्विंशतिर्जातयः प्रोक्ता इत्युपदर्शयति ।
उस जातिके प्रकरणमें यह कहना है कि अत्यन्त विस्तार करके तो असत् उत्तर स्वरूप अनन्त जातियां हैं जो कि शद्रों द्वारा नहीं कहीं जा सकती है, हा मध्यम विस्तार करके वे जातियां चौवीस भले प्रकार न्यायदर्शनमें कहीं हैं । इसी भाष्यकारकी बातको प्रन्धकार अग्रिम वार्तिक द्वारा प्रायः दिखलाते हैं।
प्रयुक्त स्थापनाहेतौ जातयः प्रतिषेधिकाः ।
चतुर्विशतिरत्रोक्तास्ताः साधर्म्यसमादयः ॥ ३१९ ॥
प्रकृत साध्यकी स्थापना करनेके लिये बादी द्वारा हेतुके प्रयुक्त किये जानेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करानेके कारण वे जातियां यहां साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा आदिक चौवीस कही गयी है।