Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अर्थात्--गौतमसूत्र और वात्स्यायनभाष्यके अनुसार जातिके सामान्य लक्षणको घटित करते हुये साधर्म्यसमा आदिका लक्षण अब बखाना जाता है ।
अत्र जातिषु या साधम्र्येण प्रत्यवस्थितिरविशिष्यमाणं स्थापनाहेतुतः साधर्म्यसमा जातिः। एवमविशिष्यमाणस्थापनाहेतुतो वैधपेण प्रत्यवस्थितिः वैधर्मासमा । तयोत्कर्षादिभिः प्रत्यवस्थितयः उत्कर्षादिसमा इति निर्वक्तव्याः। लक्षणं तु यथोक्तमभिभाष्यते ।
___ इन जातियोंमें जो साधर्म्यकरके कह चुकनेपर प्रत्यवस्थान देना है, जो कि साध्यकी स्थापना करनेवाले हेतुसे विशिष्टपनेको नहीं रख रहा है, वह दूषण माधर्म्यसमा जाति है। इसी प्रकार वैधhसे उपसंहार करनेपर स्थापना हेतुसे विशिष्टपनको नहीं कर रहा, जो प्रत्यवस्थान देना है, वह वैधर्म्यसमा जाति है। तथा स्थापना हेतुओंसे उत्कर्ष, अपकर्ष, वर्ण्य, अवर्ण्य आदि करके जो प्रत्यवस्थान देने हैं, वे उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, आदिक जातियां हैं। इस प्रकार प्रकृति, प्रत्यय, आदि करके अर्थोको निकालते हुए उक्त जातियोंकी निरुक्ति कर लेनी चाहिये । हां,उनका लक्षण तो नैयायिकोंके सिद्धांत अनुसार कहा गया उन उन प्रकरणों में भाष्य या विवरणसे परिपूर्ण का दिया जावेगा । यहाँ "जाति" स्त्रीलिङ्ग शब्द्ध विशेष्य दलमें पड़ा हुआ है। अतः समा शब्द स्त्रीलिङ्ग है, ऐसा कोई मान रहे हैं । भाष्यकार तो पुल्लिंग " सम" शब्दको अच्छा समझ रहे हैं। जो कि घञ् प्रत्ययान्त प्रतिषेध शब्द के साथ विशेषण हो जाता है। सम शब्द और समा शब्द दोनोंका जस्में " समाः " बनता है अतः पंचम अध्यायके पहिले और चौथे सूत्रअनुसार सम और समा दोनों पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शद्रोंकी कल्पना की जा सकती है। हां, अप्रिम लक्षणसूत्रोंमें तो पुल्लिंग सम शब्द होनेका कोई विवाद नहीं रह जाता है । अर्थात्-आगेके सूत्रोंमें मूलग्रन्थकारने पुल्लिंग सम शब्दका स्पष्ट प्रयोग किया है।
तत्र।
उन चौवीस जातियोंमें पहिली साधर्म्यसमा जातिका लक्षण तो इस प्रकार है । सो सुनिये । साधयेणोपसंहारे तद्धर्मस्य विपर्ययात् । यस्तत्र दूषणाभासः स साधर्म्यसमो मतः ॥ ३२२ ॥ यथा क्रियाभृदात्मायं क्रियाहेतुगुणाश्रयात् । य ईदृक्षः स ईदृक्षो यथा लोष्ठस्तथा च सः ॥ ३२३ ॥ तस्मानियाभूदित्येवमुपसंहारभाषणे । कश्चिदाहाक्रियो जीवो विभुद्रव्यत्वतो यथा ॥ ३२४ ॥