Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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अत्र वार्तिककार एवमाह - साधर्म्येणोपसंहारे तद्विपरीतसाधर्म्येणोपसंहारे तत्साधर्म्येण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमः । यथा अनित्यः शद्व उत्पत्तिधर्मकत्वात् । उत्पत्तिधर्मकं कुंभाद्यनित्यं दृष्टमिति वादिनोपसंहृते परः प्रत्यवतिष्ठते । यद्यनित्यघटसाधर्म्यादयमनिस्यो नित्येनाप्यस्याकाशेन साधर्म्यममूर्तत्वमस्तीति नित्यः प्राप्तः, तथा अनित्यः शब्द उत्पत्तिथर्मकत्वात् यत्पुनरनित्यं न भवति तन्नोत्पत्तिधर्मकं यथाकाशमिति प्रतिपादिते परः प्रत्यवतिष्ठते । यदि नित्याकाशवैधर्म्यादनित्यः शद्धस्तदा साधर्म्यमप्यस्याकाशेनास्त्य मूर्तश्वमतो नित्यः प्राप्तः । अथ सत्यप्येतस्मिन् साधर्म्ये न नित्यो भवति, न तर्हि वक्तव्यमनित्यघटसाधर्म्यानित्याकाशवैधर्म्याद्वा अनित्यः शद्ध इति ।
साधर्म्यसमा जातिके विषयमें यहां न्यायवार्तिकको बनानेवाले पण्डित गौतमसूत्रका अर्थ इस प्रकार कहते हैं कि अन्वय दृष्टन्ताकी सामर्थ्य से साधर्म्य करके उपसंहार करनेपर अथवा व्यतिरेक दृष्टान्तकी सामर्थ्य से उस साध्यधर्म के विपरीत हो रहे अर्थका समानधर्मापन करके उपसंहार कर चुकनेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा उस साधर्म्य करके दूषण उठाना साधर्म्यसम नामका प्रतिषेध है । जैसे कि शब्द ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्य ) उत्पत्तिनामक धर्म . को धारण करनेवाला होने से ( हेतु ) उत्पत्ति नामके धर्मको धारकर उपज रहे घडा, कपडा, पोथी आदिक पदार्थ अनित्य देखे गये हैं। इस प्रकार वादीकरके स्वकीय प्रतिज्ञाका उपसंहार किया जा कपर दूसरा प्रतिवादी यों प्रत्यवस्थान ( दूषणाभास ) दे रहा है कि अमित्य हो रहे घटके साधर्म्यसे यदि यह शब्द अनित्य है, तब तो नित्य हो रहे आकाशके साथ भी इस शब्दका साधर्म्य अमूर्त्तपना है। अपकृष्ट परिणामको धारनेवाले द्रव्योंको मूर्त द्रव्य कहते हैं । वैशेषिकोंके यहां पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन ये पांच द्रव्य ही मूर्त माने गये हैं । शेष आकाश काछ, रहते हैं । शब्द नामक गुणमें परिमाण
दिशा, आत्मा ये चार इव्य अमूर्त हैं । गुणोंमें गुण नहीं या रूप आदिक दूसरे गुण नहीं पाये जाते हैं। इस कारण शब्द और आकाश दोनों अमूर्त है । अतः अमूर्तपना होनेसे भाकाशके समान शब्दको निश्यपना प्राप्त हुआ । यह साधर्म्यकर के उपसंहार किये जानेपर साधर्म्यमका एक प्रकार हुआ तथा दूसरा प्रकार विपरीत साधर्म्यकर के उपसंहार किये जानेपर यों है कि शब्द अनित्य है ( प्रतिज्ञा ) उत्पन्न होना धर्मसे सहितपना होनेसे ( हेतु ) जो पदार्थ फिर अनित्य नहीं है, वह उत्पत्तिधर्मवान् नहीं बनता है । जैसे कि आकाश ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) इस प्रकार वादीद्वारा प्रतिपादन किया जा चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान देता है कि मित्य आकाशके विधर्मापनसे यदि शब्द अनित्य माना जा रहा है, तब तो आकाशके साथ मी इस शब्दका अमूर्तपना साधर्म्य है । इस कारण यों तो शब्दका नित्यपना प्राप्त हुआ जाता है । फिर भी यदि कोई यों कहना प्रारम्भ करे कि इस अमूर्त्तत्व साधर्म्यके होते संते भी शब्द नित्य नहीं होता है । तब तो हम कहेंगे कि यों तो अनित्य हो रहे घटके साधर्म्यसे अथवा मित्य हो रहे
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