Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्यचिन्तामणिः
१६९
वानिति निष्क्रिय एवेत्यर्थः । सोऽयं साधयेणोपसंहारे वैधयेण प्रत्यवस्थानात् वैधर्मसमः प्रतिषेषः पूर्ववद्दषणाभासो वेदितव्यः ।
आत्मा चकना, उतरना, चढना, मर कर अन्यत्र स्थानमें जाकर जन्म लेना, आदि क्रियाओंसे युक्त है । क्योंकि वह क्रियाके प्रेरक हेतु हो रहे प्रयत्न पुण्य, पाप, संयोग इन गुणोंका धारण कर रहा है । जैसे कि फेंका हुआ देल क्रियाके कारण संयोग, वेग, गुरुत्व गुणोंको धारण कर रहा सन्ता क्रियावान् है । इस अनुमानमें वैधयंकरके असत् दूषण उठाया जाता है कि जो क्रियाहेतुगुणका आश्रय डेल है, वह क्रियावान् होता हुआ अपकृष्ट परिमाणवाला परिमित देखा गया है। आत्मा तो तिस प्रकार मध्यपरिमाणवाला नहीं है । तिस कारणसे लोष्ठके समान क्रियावान् आत्मा नहीं, इस कारण आत्मा क्रियारहित ही है, यह अर्थ प्राप्त हो जाता है। नैयायिक यों कहते हैं कि यह प्रत्यवस्थान भी साधर्म्य करके वादी द्वारा उपसंहार किये जानेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थान उठा देनेसे वैध→सम नामका प्रतिषेध है। यह भी पूर्वके समान दूषणाभास समझ लेना चाहिये । अर्थात्-गोत्वसे या अश्व आदिके वैध→से जैसे गायकी सिद्धि कर ली जाती है, उसी प्रकार यहां भी समीचीन क्रिया हेतु गुणाश्रयत्व हेतुसे क्रियावत्त्व साध्यकी सिद्धि कर दी जाती है । जो दोष साध्य और साधनकी व्याप्तिका विच्छेद नहीं कर सकता है, वह दोष नहीं है किन्तु दोषाभास है।
का पुनर्वैधर्म्यसमा मातिरित्याह ।
न्यायभाष्यके अनुसार दूसरे प्रकारकी वैधर्म्यसमा जाति फिर क्या है ! इस प्रकारको जिज्ञासा होमेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उन ग्रन्धयोंका अनुवाद करते हुये स्पष्ट कथन करते हैं।
वैधम्र्येणोपसंहारे साध्यधर्मविपर्ययात् । वैधम्र्येणेतरेणापि प्रत्यवस्थानमिष्यते ॥ ३२९ ॥ या वैधय॑समा जातिरिदं तस्या निदर्शनम् । नरो निष्क्रिय एवायं विभुत्वात्सक्रियं पुनः ॥ ३३०॥ विभुत्वरहितं दृष्टं लोष्ठादि न तथा नरः। तस्मानिष्क्रिय इत्युक्ते प्रत्यवस्था विधीयते ॥ ३३१ ॥ वैधम्र्येणैव सा तावत्कैश्चिनिग्रहभीरुभिः । द्रव्यं नमः क्रियाहेतु गुणरहितं समीक्षितं ॥ ३३२ ॥