Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्याचन्तामणिः
ज्ञापक हेतु हो जाता है । " गवेतरासमवेतत्वे सति सकल गोसमवेतत्वं गोत्वत्वं" माना गया है। सींग और सास्ना दोनोंसे सहितपन यह गोमिन्नका वैधर्म्य है। अतः सींग, साना, सहितपनसे भी गोत्वकी सिद्धि हो सकती है। किन्तु एक खुरसहितपनातो गोमिनका वैधH नहीं है। गो मिन अश्न, गधा, मनुष्य, इनमें भी एकशफसाहितपना विद्यमान है। यानी गाय, भैस, छिरियाके दो खुर होते हैं । घोडे, गधेके एक खुर होता है । अतः पुरुष, घोडा, गधा, हाथी आदि विपक्षोंमें भी एक खुरसहितपनके ठहरजानेसे वह हेतु व्यतिरेकको धारनेवाला नहीं हुआ । इसी कारण एकखुरसहितपना, पशुपना, जीवत्व, आदि हेतु गौके साधक नहीं है । जिस हेतु में गोका साधर्म्य और अगो ( गो भिन ) का वैधर्म्य घटित हो जायगा, वह साधर्म्य वैधयं प्रयुक्त गौका साधक अवश्य बन बैठेगा। इसी दृष्टान्तके अनुसार प्रकरणमें वादीके यहां साधर्म्य और वैधय॑से उपसंहार कर दिया जाता है। हां, गौपना तो फिर गाय, बैलोंमें ही ही देखा जा रहा है। अतः उसके होनेपर होना उसके नहीं होनेपर नहीं होना, इस प्रकार अन्वय व्यतिरेकोंको धारता हुषा वह गोत्व गाय, बैलका, ज्ञापक हेतु बन आता है। बस उसीके समान उत्पत्ति धर्मसहितपन हेतु भी घट, पत्र, कटोरा, आदि सपक्षों में अनित्यपनके होते संते विद्यमान रहता है और आकाश, परम महापरिमाण आदि विपक्षोंमें अनित्यत्वके अभाव होनेपर उत्पत्तिसहितपन हेतुका भी अभाव है। इस प्रकार अन्वय व्यतिरेकोंको धारनेवाला उत्पत्तिधर्मसहितपन हेतु शब्दमें भळे प्रकार देखा जा रहा है। अतः अनित्यत्वका साधक है। किन्तु फिर अनित्य घटके साथ साधर्म्यमात्रको धारनेवाले सत्त्व, प्रमेयत्व, आदिक व्यभिचारी हेतुओंकरके शब्दमें अनित्यत्वकी सिद्धि नहीं होती है । अन्वय घट जानेपर भी उनमें व्यतिरेक नहीं घटित होता है। विधर्मपनको प्राप्त हो रहे आकाशके साथ भले ही शब्दका अमूर्तत्व आदि करके साधर्म्य है। किन्तु सर्वदा, सर्वत्र व्यतिरेकके नहीं घटित होनेपर अमूर्त्तत्व, अचेतनस्व आदिक हेतु शब्दके नित्यपनको नहीं साध सकते हैं । तिस कारण उस अन्वय व्यतिरेक सहितपनके नहीं घटित हो जानेसे प्रतिवादीद्वारा यह दूषण उठाना युक्त नहीं है। क्योंकि अन्वय व्यतिरेकोंको नहीं धारनेवाले हेतुओंका साधर्म्य वैधर्म्य नहीं बन पाता है। अतः वे प्रतिवादीके बाक्षेप कोरे दूषणामास हैं।
एतेनात्मनः क्रियावत्साधर्म्यमात्र निष्क्रियवैधय॑मात्रं वा क्रियावत्वसाधनं प्रत्याख्यातमनन्वयव्यतिरेकित्वात् अन्वयव्यतिरेकिण एव साधनस्य साध्यसाधनसामर्थ्यात् ।
नैयायिकोंका ही मन्तव्य पुष्ट हो रहा है कि इस उक्त कथन करके हमने इसका भी प्रत्याख्यान कर दिया है कि जो विद्वान् केवल क्रियावान पदार्थोके साथ समानधर्मपनको आत्माके क्रियावत्वका साधक मान बैठे हैं, अथवा क्रियारहित पदार्थोके केवल विधर्मपनको आत्माके क्रियावत्वका बापक हेतु मान बैठे हैं । बात यह है कि इन क्रियावत्साधर्म्य और निष्क्रिय वैधय॑में अन्वय, व्यतिरेकोंका सद्भाव नहीं पाया जाता है। सिद्धान्तमें अन्वय व्यतिरेकवाले हेतुकी ही साध्यको