Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
४६१
तत्वार्थचिन्तामणिः
तथा चाह न्यायभाष्यकारः । साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानस्य विकल्पाज्जातिबहुत्वमिति संक्षेपेणोक्तं, तद्विस्तरेण विभज्यंते । ताश्च खल्विमा जातयः स्थापनाहेतौ प्रयुक्ते चतुर्विंशतिः प्रतिषेधहेतव " साधर्म्यवैधम्र्योत्कर्षापकर्षवर्ण्यवर्ण्यविकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्तिप्रसंगप्रतिदृष्टांतानुत्पत्ति संशयप्रकरणाहेत्वर्थापत्त्यविशेषोपपत्युपलब्ध्यनुपलब्धिनित्यानि - त्मकार्यसमाः " इति सूत्रकारवचनात् ।
और तिसी प्रकार न्यायभाष्यको बनानेवाले वात्स्यायन ऋषि इसी बात को अपने शङ्खसे न्यायभाष्य में पंचम अध्यायके प्रारम्भमें यों कह रहे हैं कि साधर्म्य और वैधर्म्य करके हुये प्रत्यव - स्थानके भेदसे जातियोंका बहुत्व हो जाता है । इस प्रकार संक्षेपसे तो एक ही प्रत्यवस्थान रूप जाति कही गयी है, हां, उस साधर्म्य और वैधर्म्य करके हुये प्रत्यवस्थानके विस्तार कर देनेसे तो जाति विभाग कर दिये जाते हैं। तथा वे जातियां निश्चय करके स्थापना हेतुके प्रयुक्त किये जानेपर पुनः प्रतिषेधके कारण हो रहीं ये वक्ष्यमाण चौवीस हैं । उनको गिनिये १ साधर्म्यसमा २वैधर्म्यसमा ३ उत्कर्षसमा : अपकर्षसमा ५ वर्ण्यसमा ६ अवर्ण्यसमा ७ विकल्पसमा ८ साध्यसमा ९ प्राप्तिसमा १० अप्राप्तिसमा ११ प्रसंगसमा १२ प्रतिदृष्टान्तसमा १३ अनुत्पत्तिममा १४ संशयसमा १५ प्रकरणसमा १६ अहेतुसमा १७ अर्थापत्तिसमा १८ विशेषसमा १९ उपपत्तिसमा २० उपलब्धिसमा २१ अनुपलब्धिक्षमा २२ नित्यसमा २३ अनित्यसमा २४ कार्यसमा । इस प्रकार जातियोंके चौवीस भेद न्यायसूत्रों को बनानेवाले गौतमऋषिने पांचवें अध्यायके आदिमें कहे हैं। इन जातियों का लक्षणीय अर्थ यद्यपि निरुकिसे लब्ध हो जाता है तो भी शिष्य बुद्धिवैशद्यार्थ गौतमऋषिने सूत्रोंमें न्यारे न्यारे लक्षण कहे हैं ।
यत्राविशिष्यमाणेन हेतुना प्रत्यवस्थितिः ।
साधर्म्येण समा जातिः सा साधर्म्यसमा मता ॥ ३२० ॥ निर्वक्तव्यास्तथा शेषास्ता वैधर्म्यसमादयः ।
लक्षणं पुनरेतासा यथोक्तमभिभाष्यते ॥ ३२१ ॥
भाष्य में लिखा है कि " साधर्म्येण प्रत्यवस्थानमविशिष्यमाणं स्थापना हेतुतः साधर्म्यसमः, अविशेषं तत्र तत्रोदाहरिष्यामः एवं वैधर्म्यसमप्रभृतयोऽपि निर्वक्तव्या " जहां बिशेषको नहीं प्राप्त किये गये हेतुकरके साधर्म्यद्वारा प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह नैयायिकों के यहां साधर्म्यसमा - जाति मानी गयी है । तथा उसी प्रकार शेष बची हुई उन वैधर्म्यसमां, उत्कर्षसमा आदि जातियोंकी भी शब्दोंद्वारा निरुक्ति कर लेना चाहिये । हां, फिर इन साधर्म्यसमा आदिक जातियोंका न्यायदर्शन प्रन्थके शनुसार कहा गया लक्षण तो यथावसर ठीक ढंगले भाषण कर दिया जाता है ।