Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थकोकवार्तिके
इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान, परार्थानुमान आदिमें प्रमाणविशेष लक्षणोंका समन्वय करनेपर उन विशेषोंका पृथग्भाष बन पाता है । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि वाक्छसे उपचार भिन्न ही है । किन्तु उक्त दो छलोंके समान प्रवृत्त किया गया वह उपचारछल भी दूसरे प्रतिवादीका पराजय करानेके लिये चारों भोरसे समर्थ हो जाता है, क्योंकि प्रतिवादीने वक्ता के अभिप्रायोंके अनुसार प्रतिषेध नहीं किया है । वक्तुरभिप्रायः वक्त्रभिप्रायः वक्रभिप्रायमनतिक्रम्य इति यथावक्रमिप्रायः ( अव्ययीभाव ) जब कि शद्वका प्रयोग करना लोकमें प्रधानभाव और गौणभाव दोनों प्रकारोंसे प्रसिद्ध हो रहा है, तो वह वक्ताको यदि गौण अर्थ अभीष्ट हो रहा है, तब तो उसी गौण अर्थका वादी विचार अनुसार प्रतिवादीको स्वीकार करना चाहिये और उसी गौण अर्थका प्रतिवादीको प्रतिषेध करना उचित है। तथा वादीको शद्वका यदि प्रधानभूत अर्थ अभिप्रेत हो रहा है, तब उस प्रधान अर्थका ही प्रतिवादी करके अनुज्ञान और प्रतिषेध करना चाहिये, न छन्दतः, अपनी इच्छा अनुसार स्वच्छन्दतासे अनुज्ञान और प्रतिषेध नहीं करना चाहिये । यही न्याय मार्ग है। यह प्रकरणमें जिस समय वक्ता शद्वके केवल गौण अर्थको अभीष्ट कर रहा है, उस समय शद्वके प्रधानभूत हो रहे उस अर्थकी परिकल्पना कर यदि दूसरा प्रतिवादी प्रतिषेध करता है, तब तो समझिये कि उस प्रतिबादीने अपनी विचारशालिनी बुद्धिका ही प्रतिषेध कर डाला, यों समझा जायगा । इतनेसे दूसरे वादीके अभिप्रायका प्रतिषेध करना नहीं माना जा सकता है । अर्थात- जो गौण अर्थके स्थानपर प्रधानभूत अर्थकी कल्पना करता है, वह अपनी बुद्धिके पीछे लट्ठ लेकर पडा है । इस कारण उस प्रतिवादीका वादीके ऊपर यह उलाहना नहीं हुआ । प्रत्युत प्रतिवादीके उपर ही उलाहना गिर पडा और वादीके ऊपर उपालम्भ होना नहीं बनने से वह प्रतिवादी पराजित हो जाता है, क्योंकि प्रतिवादीको उस वादीके ऊपर उठाने योग्य उपालम्भोंका परिज्ञान नहीं है । इस प्रकार छळवादी नैयायिक स्वकीय दर्शन अनुसार मान रहे हैं । छळ प्रकरण आठ गौतमीय सूत्रोंपर किये गये वात्स्यायन भाष्यका अनुवाद श्री विद्यानन्द स्वामीने उक्त ग्रन्थ द्वारा प्रायः कह दिया है ।
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तदेतस्मिन् प्रयुक्ते स्यान्निग्रहो यदि कस्यचित् ।
तदा योग निगृह्येत प्रतिषेधात् प्रमादिकम् ॥ ३०५ ॥ मुख्यरूपतया शून्यवादिनं प्रति सर्वथा । तेन संव्यवहारेण प्रमादेरुपवर्णनात् ॥ ३०६ ॥
ra श्री आचार्य महाराज छलोंका विशेषरूपसे तो खण्डन नहीं करते हैं। क्योंकि छल व्यवहार सबको अनिष्ट है। विशेषकर सिद्धान्त प्रन्थमें तो छलप्रवृत्तिं कथमपि नहीं होनी चाहिये ।