Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्षचिन्तामणिः
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स्थानी ( आधेय पुरुष ) अर्थ गौण है और स्थान अर्थ ( अधिकरण ) प्रधान है। इस प्रधान अर्थ प्रतिपादक शब्दकी कल्पना कर प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध किया जा रहा है। अन्य प्रकारोंसे तो निषेध हो नहीं सकता था, वहाँ भी नव शब्दका दूसरा अर्थ नौ संख्यावाला प्रतिवादीद्वारा किया गया है । दोनोंमें इस एक प्रकारके अतिरिक्त कोई दूसरा प्रकार नहीं है। इस कारण दोनों छलोंमें कोई भेद नहीं है। अब वात्स्यायन ऋषि गौतमसूत्र अनुसार उत्तर कहते हैं कि यह आक्षेप तो निःसार है । " न तदर्थान्तरभावात " उस अर्थसद्भावके प्रतिषेधका पृथग्भाव है । इसका अर्थ यों है कि अर्थान्तरकी कल्पना करनास्वरूप वाक्छलसे अर्थके सद्भावका प्रतिषेध कर देना स्वरूप उपचारछलको विभिन्न प्रकारपना है। दोनों छठोंका प्रयोजक धर्म न्यारा न्यारा है । गौतमऋषि कहते हैं कि " अविशेषे वा किञ्चित्साधादेकच्छलप्रसंगः " कुछ थोडेसे समान धर्मापनसे यदि उन वाक्छल और उपचार छलको एकपना अभीष्ट किया जायगा, तब तो तीनों भी छलोंके एकपनका प्रसंग हो जावेगा। तथा मुख और चन्द्रमा या हंसी और कीर्ति एवं गौ और गवय इनका भी कई समान धौके मिल जानेसे अभेद हो जावेगा । सादृश्य और तादात्म्य में तो महान् अन्तर है।
अथ वाक्छ सामान्यछलयोः किंचित्साधर्म्य सदपि द्वित्वं न निवर्तयति, तर्हि तयोरुपचारछलस्य च किंचित्साधर्म्य विद्यमानमपि त्रित्वं तेषां न निवर्तयिष्यति, वचनविघातस्यार्थविकल्पोपपत्या त्रिष्वपि भावात् । ततोन्यदेव वाक्छलादुपचारछलं । तदपि परस्य पराजयायावकल्पते यथावक्त्रभिप्रायमप्रतिषेधात् । शदस्य हि प्रयोगो लोके प्रधानभावेन गुणभावेन च प्रसिद्धः। तत्र यदि वक्तुर्गुणभूतीर्थोऽभिप्रेतस्तदा तस्यानुबानं प्रतिषेधो वा विधीयते, प्रधानभूतश्चेत्तस्यानुज्ञानप्रतिषेधो कर्तव्यो प्रतिवादिना न छन्दत इति न्यायः । यदात्र गौणमानं वक्ताभिप्रति प्रधानभूतं तु तं परिकल्प्य पर प्रतिषेधति तदा तेन स्वमनीषा प्रतिषिद्धा स्यान परस्याभिप्राय इति न तस्यायमुपालंभ: स्यात् । तदनुपालंभाचासौ पराजीयते तदुपालंभापरिज्ञानादिति नैयायिका मन्यते ।
अब भी नैयायिकोंके सिद्धान्तका ही अनुवाद किया जा रहा है कि वाक्छल और सामान्यछल इन दोनोंमें कुछ समानधर्मापन. यद्यपि विद्यमान है, तो भी वह उनके दोपनकी निवृत्ति नहीं करा पता है । इस प्रकार किसीका प्रश्न होनेपर हम नैयायिक उत्तर देवेंगे कि तब तो उन सामान्य छळ, वाक्छल, और उपचारछलका कुछ कुछ सधर्मापन विद्यमान हो रहा भी उन छळोंके तीनपनकी निवृत्ति नहीं करा सकेगा । अर्थविकल्पकी उपपत्तिसे वादीप्रतिपादित वचनका विघात, इस छलोंके सामान्य लक्षणका भळे ही तीनों भी छलोंमें सद्भाव पाया जाता है, "प्रमिति करणं प्रमाणं"। इस सामान्य लक्षणके सम्पूर्ण प्रमाणके भेद प्रभेदोंमें घटित हो जानेपर ही प्रत्यक्ष, अनुमान या