Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
घात किया, एतावता ही अन्य विश्वास्य पुरुषों द्वारा होने योग्य कार्योका प्रत्याख्यान नहीं कर देना चाहिये । तिस कारण ऐसी व्यवस्था होनेपर प्रतिवादी करके असद्भूत अर्थकी कल्पना द्वारा वादीके वचनका विघात करना नहीं बन पाता । इस कारण तिस प्रकारके असद्भूत अर्थकी कल्पनाके अन्याय पूर्ण कथन करनेसे दूसरे प्रतिवादीका पराजय हो जाता है । अब बाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार उक्त कथनको कह रहे न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ऋषि यह नहीं समझते हैं कि तिस प्रकारसे छलका व्यवहार नहीं बनता है । थोडा विचार कीजियेगा जिस प्रकार कि वादीकी वचनमंगी अनेक प्रकार है, उसीके समान प्रतिवादीके प्रति बचनोंका ढंग अनेक संदर्माको लिये हुये होता है। ___हेतुदोषस्यानैकातिकत्वस्य परेणोद्भावनाच्च न चानैकांतिकत्वोद्भावनमेव सामान्यछलमिति शक्यं वक्तुं सर्वत्र, तस्य सामान्यछलत्वप्रसंगात् । शद्धो नित्योऽस्पर्धयत्त्वादाकाशवदित्यत्र हि यथा शद्धनित्यत्वे साध्ये अस्पर्शवत्वमाकाशे मित्यत्वमेति सुखादिष्वत्येतीति व्यभिचारित्वादनैकांतिकाच्यते न पुनः सामान्यछलं, तथा प्रकृतमपीति न विशेषः कश्चिदस्ति ।
भाचार्य महाराज बब नैयायिकोंके छलकी परीक्षा करते हैं कि दूसरे प्रतिवादीने छल व्यवहार नहीं किया है। प्रत्युत दूसरे प्रतिवादीने वादीके अनुमानमें हेतुके अनेकान्तिक दोषका उत्थापन किया है । हेतुके व्यभिचारीपन दोषका उठाना ही सामान्य छल है। यह तो नहीं कह सकते हो। क्योंकि यों तो सभी व्यभिचारस्थलोंपर उस व्यभिचार दोषके उठानेको सामान्य छळपनेका प्रसंग हो जावेगा । देखिये, शब्द ( पक्ष ) नित्य है ( साध्य ), स्पर्शरहितपना होनेसे (हेतु ) आकाशके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) इस प्रकार इस अनुमानमें जैसे शब्दका नित्यपन साधनेमें कहा गया अस्पर्शवस्व हेतु कहीं आकाशरूप सपक्षमें नित्यपनको अन्वित कर रहा है, किन्तु कहीं सुख, रूप, आदि विपक्षोंमें नित्यत्वका उल्लंघन करा रहा है । " निर्गुणाः गुणाः " " गुणादिनिर्गुणक्रिया" गुणोंमें पुनः स्पर्श आदि गुण नहीं ठहरते हैं । इस कारण व्यभिचारी हो जानेसे, वस्पर्शत्व हेतु अनेकान्तिक हेत्वाभास कहा जाता है। किन्तु फिर यह प्रतिवादीका हेत्वाभास उठाना सामान्य छल नहीं बखाना जाता है । तिस ही प्रकार प्रकरणप्राप्त ब्राह्मणत्व हेतु भी न्यभिचारी है। साम्यके विना ही ब्रात्यमें वर्त जाता है । इस प्रकार अस्पर्शवत्व और ब्रामणत्व हेतुके व्यभिचारीमें कोई विशेषता नहीं है, दोनों एकसे हैं।
- सोयं ब्राह्मणे धर्मिणि विद्याचरणसंपद्विषये प्रशंसनं ब्रामणत्वेन हेतुना साध्यते, यथा शालिविषयक्षेत्रे प्रशंसा क्षेत्रत्वेन साक्षान पुनर्विद्याचरणसंपत्सत्ता साध्यते येनाति. प्रसज्यत इति स्वयमनकांतिकत्वं हेतोः परिहरनपि तभानुमन्यत इति कथं न्यायपिन् ।