Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्रयोग में भी यदि वक्ताको नव कंबल शद्वके दोनों ही अर्थ अभीष्ट है कि इसके निकट नवीन कंवल है, और इसके यहां नौ संख्यावाले कंबल है, तब तो जो प्रतिवादी यों कह कर दूषण उठा रहा है कि इस देवदत्त के पास एक कम दश कंबल तो नहीं हैं । हम कहते हैं कि वह प्रत्यवस्थान करनेवाला प्रतिवादी तो वादीद्वारा प्रयुक्त किये बेतुके असिद्धपनको ही उठा रहा है । किन्तु फिर छलकरके तो दूषण नहीं दे रहा है । अतः उस प्रतिवादीको छली बनाकर पराजय देना उचित नहीं । हां, प्रतिवादीद्वारा लगाये गये उस असिद्ध दोष के परिहारके लिये चेष्टा कर रहा वादी उन दोनों अर्थोक समर्थन करके अथवा उन दोनोंमेंसे किसी एक अर्थका समर्थन करके अपने नवकंबलत्व ( नवः कम्बलो यस्य) हेतुकी सिद्धिको दिखलाता है कि हे प्रतिवादिन् ! नवीन एक कंबल तो इसके पास आपने देखकर निर्णीत ही कर लिया है । शेष अन्य आठ कंबल भी इसके बरमें रखे हुये हैं । जिसके पास दश पगडियां, पच्चीस टोपियां, पांच जोडी जूते, चार छतरियां, वीस धोतियां, नो कंबल, सात घडियां आदिक भोग, उपभोगकी सामग्री विद्यमान हैं, वह एक ही समय में सबका उपभोग तो नहीं कर सकता है। हां, हाथी, घोडे, बग्घी, गाडी, मोटर, विद्यालय, भौषधालय, अन्नक्षत्र, भूषण, वसन आदिका आधिपत्य श्रेष्ठ देवदत्त में सर्वदा विद्यमान है । अतः नवीन और नौ संख्या इन दोनों अर्थोके प्रकारसे मेरा नवकंबलम्ब हेतु सिद्ध हो जाता है । तिस कारण मेरे ऊपर तुमको असिद्धपना नहीं उठाना चाहिये । दूसरी बात यह भी है, कि नवकंबल योगीपनको जब हेतुपन करके ग्रहण किया जायगा तो मेरा हेतु व्याख्यान किये बिना ही सरलतासे सिद्ध हो जाता है । नवकंबकका योगीपन कहने से ओढे हुये कंबल में नवीनता अर्थको पुष्टि मिल जाती है । ज् समाधौ ” या युजिर् योगे, किसी भी धातुसे योगी शब्दको बनानेपर नूतन कंबलका संयोगीपना हेत्वर्थ हो जाता है। जो कि पक्षमे प्रत्यक्ष प्रमाणसे वर्त रहा दीखता है। योगी शब्द लगा देनेसे नवका अर्थ नौ संख्या नहीं हो सकता है । अन्तमें तत्त्व यही निकलता है कि अपने पक्षकी सिद्धि हो जानेपर ही वादीका जय और दूसरे प्रतिवादीका पराजय होगा । अन्य प्रकारोंसे जय पराजयकी व्यवस्था नहीं मानी जाती है, समझे भाई !
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तदेवं वाक्छलमपास्य सामान्यछळमनूद्य निरस्यति ।
तिस कारण इस प्रकार वाक्छलका निराकरण कर अब श्री विद्यानंद आचार्य दूसरे सामान्य - छळका अनुवाद कर खण्डन करते हैं। नैयायिकोंने वाकूळलको दूषित करनेवाला बीज ठीक नहीं माना है । यद्यपि वादी, प्रतिवादियोंके परस्पर हो रही तस्वपरीक्षा में छल करना किसीको भी उचित नहीं है। फिर भी आचार्य कहते हैं कि जयव्यबस्थामें छलके ऊपर बक नहीं रक्खो । किन्तु स्वपक्षसिद्धिको जयप्राप्तिका अवलम्ब बनाओ । सामान्यछकके विचार में भी यह बात पकडी रहनी चाहिये ।
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