Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
इस प्रकार कुश्रुतज्ञानरूप विपर्ययको विस्तार से समझ लेना चाहिये । प्रन्थका विस्तार हो जानेसे अनेक विपर्ययोको यहां नहीं लिखा गया है।
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जीवे सति तदसश्ववचनं चार्वाकस्य विपर्ययस्तत्सश्वस्य प्रमाणतः साघनात् । अजीवे तदसश्ववचनं ब्रह्मवादिनो विपर्ययः । आस्रवे तदसच्चवचनं च बौद्धचार्वाकस्यैव संबरे, निर्जरायां, मोक्षे च तदसत्ववचनं याज्ञिकस्य विपर्ययः । पूर्वमेव जीवनदजीवादीनां प्रमाणतः प्ररूपणात् ।
ज्ञान, सुख आदि गुणों के साथ तन्मय हो रहे जीव पदार्थ के सत्व होनेपर फिर उस जीवक असद्भाव कहना चार्वाक के यहां हो रहा विपर्ययज्ञान है । क्योंकि उस जीवकी सत्ताको प्रमाणोंसे साधा जा चुका है। तथा घट, पट, पुस्तक आदि अजीव पदार्थोंके सद्भाव होनेपर उन अजीव पदार्थोंका असव कहते जाना ब्रह्माद्वैतवादीका विपर्यय ज्ञान है और आस्रवतत्व के होनेपर उस आखत्रका असस्त्र कहते चले जाना बौद्ध और चार्वाकोंकी बुद्धिमें विपर्यय हो रहा है । इसी प्रकार संवर, निर्जरा और मोक्ष तस्वके होनेपर भी उनका असत्व निरूपण करना यज्ञको चाहनेवाले मीमांसकों का विपर्यय ज्ञान है। क्योंकि पूर्व प्रकरणों में ही जीवतस्त्रके समान अजीव, आशय, आदिकोंका प्रमाणोंसे निरूपण किया जा चुका है ।
विशेषतः संसारिणि मुक्ते च जीवे सति तदसच्चवचनं विपर्ययः । जीवे पुनले धर्मेधर्मे नभसि काले च सति तदसत्ववचनं ।
सामान्यरूपसे जीवतखको नहीं माननेवर चार्वाकके हो रहा विपर्ययज्ञान है । किन्तु जीवके मेद, प्रभेदरूपसे संसारी जीवों या मुक्त जीवोंके विद्यमान होनेपर भी उन संसारी जीवोंका या मुक्त जीवका अस्त्र कहना एकान्तवादियों का विपर्यय है । मस्करी मतवादी मुक्त जीवका मोक्षसे पुनः आगमन मानते हैं। कोई वादी मुक्त जीवों को संसारी जीवोंसे न्यारा नहीं मानते हैं। अद्वैतवादी तो नाना संज्ञारी जीवोंको ही स्वीकार नहीं करते हैं । " ब्रह्मैव सत्यमखिलं न हि किंचिदस्ति " । इसी प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल, इन विशेष द्रव्योंके होनेपर पुनः उनका अक्षरस कहना विपर्ययज्ञान है । अथवा सामान्यरूपसे अजीवको मान लेनेपर भी विशेषरूप से पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालके होते हुये भी उन विशेष अमीव तवोंका rara कहना किन्हीं वादियोंके विपर्ययज्ञान हो रहा है।
सत्र पुण्यासवे पापास्रवे च पुण्यबन्धे पापबन्धे च देशसंवरे सर्वसंवरे च यथाकाल निर्जरायामौ पक्रमिक निर्जरायां च आईन्त्यमोक्षे सिद्धत्वमोक्षे च सति तदसत्ववचनं कमचिद्विपर्ययस्तस्वभ्यस्य पुरस्तात् प्रमाणतः साधनात् ।