Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थशोकवार्तिके
रूप ही नहीं हैं । क्योंकि पर्यायोंको कहनेवाले पर्यायवाची शद्वोंके भेद करके भिन्न भिन्न अर्थोकी उपलब्धि हो रही है। अन्यथा एक ही पर्यायवाची शब्दकरके कथन हो जानेका प्रसंग होगा। अथवा पदार्थकी एक ही पर्याय मान लेनेसे प्रयोजन सध जाने चाहिये । देवोंको अमर, निर्जर, देव, आदि शद्बोंसे या स्त्रीको अबला, सीमन्तिनी, मुग्धा, शद्बोंसे कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। अपमृत्यु नहीं होने की अपेक्षा देव अमर कहे जाते हैं । बुढापा नहीं आनेकी अपेक्षा वे निर्जर कहे जाते हैं। क्रीडा करनेकी पर्यायोंसे वे देव हैं, तथा गर्भ धारणकी अपेक्षा स्त्री है। निर्बलता धर्मकरके वह अबला है, सुन्दर केशपाश होनेसे वह सीमन्तिनी है । भोलेपनकी अपेक्षा स्त्रीको मुग्धा कहते हैं । इस प्रकार भिन्न भिन्न पर्यायोंसे युक्त पदार्थ तो समभिरूढ नयकी दृष्टिसे सत् है। शेष कोरे सत् तो असत् ही हैं । तथा संग्रहनयकी अपेक्षा विधिकी कल्पना करते हुये तभी एवंभूतनयके आश्रयसे प्रतिषेधकी कल्पना कर लेना " न स्यात् सर्व सदेव " सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् सतरूप ही नहीं हैं। क्योंकि उस उस क्रियामें परिणम रहे ही अर्थको तिस प्रकार होना बनता है। अन्य ढंगोंसे सद्भूतपना मान लेनेपर क्रियाओंके संकर हो जानेका प्रसंग हो जायगा । तेलीका काम तमोलीसे नहीं लिया जा सकता है । हिंसक नर क्षमाधारी नहीं हो सकता है । व्यभिचारी और ब्रह्मचारीकी क्रिया एक नहीं है । अतः संग्रहनयके द्वारा कोरे सत्की विधि हो जानेपर भी क्रिया परिणतियोंके विना यह नय उसको असत् ही यों कहता जायगा, जैसे कि आप्तपुरुष द्वारा भाईके आ जानेका सद्भाव जान करके भी अन्धी स्त्री तबतक उस भाईका असद्भाव मानती है, जबतक कि उसको वह भ्रातृरूपसे शारीरिक मिलनद्वारा मिलता नहीं है या प्रियसम्भाषण क्रियाको करता नहीं है। इस प्रकार संप्राकी अपेक्षा विधिकल्पना और व्यवहार आदि पांच नयोंसे निषेधकल्पना करते हुये पांच प्रकार के दो मूलभंग बना लेना तथा संग्रह व्यवहार या संग्रह ऋजुसूत्र आदि यों दो दो मयके क्रम और अक्रमकी विवक्षा कर देनेसे तीसरे उभय भंग और चौथे अवक्तव्य भंगकी कल्पना कर लेना चाहिये । और विधि प्रयोजक संग्रहनयका आश्रय करनेसे तथा साथ कहनेके लिये उभय नयोंका आश्रय कर लेनेसे पांचवां अस्ति अवक्तव्य भंग बना लेना तथा प्रतिषेधके प्रयोजक नयोंका आश्रय कर लेने और एक साथ दो नयोंके अर्थ प्रतिपादन करनेका आश्रय करनेसे छठे प्रतिषे. धावक्तव्य धर्मको कल्पना कर लेनी चाहिये तथा क्रमसे अक्रमसे और उभय नयोंके एक साथ प्रतिपादनका आश्रय करनेसे उन वीधि निषेधके साथ दोनोंका अवक्तव्य नामका सातवा भंग बन जाता है । इस प्रकार संग्रहसे विधिकी विवक्षा कर और उत्तरवर्ती पांच नयोंसे निषेधकी विवक्षा कर दो मूलभंगोंके द्वारा पांच सप्तभंगियां यहांतक बना दी गयी हैं।
तथा व्यवहारनयाद्विधिकल्पना सर्व द्रव्याद्यात्मकं प्रमाणप्रमेयव्यवहारान्यथानुपपत्तेः कल्पनामात्रेण तव्यवहारे स्वपरपक्षव्यवस्थापननिराकरणयोः परमार्यतोनुपपत्तरिति