Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यशोकवार्तिके
मान कथन कर रहे हैं, उनके यहां उस प्रतिज्ञाकी हानि भी तिप्त ही प्रकार उच्यमान या गम्यमान स्वीकार कर लेनी चाहिये । सभी प्रकारोंसे उस प्रतिज्ञाको नहीं चाहनेवाले वादीका तो जगत्में असम्भव ही है। अब हमको यहां केवल इतना ही कहना है कि केवल इतने छोटे निमित्तसे ही प्रतिबाहानि होती है, और प्रतिवादी द्वारा प्रतिपक्षकी सिद्धि किये विना ही चाहे जिस किसी भी वादीको निग्रहस्थान प्राप्त हो जाय, इस व्यवस्थाको हम जैन नहीं सह सकते हैं। ऐसा अन्धेर नगरीका न्याय हमको अभीष्ट नहीं है । क्योंकि ऐसे पोले या पक्षपातग्रस्त नियमोंसे तत्वोंकी व्यवस्था नहीं करायी जा सकती है । यह पक्की बात है, उसको गाठमें बांध लो।
प्रतिज्ञांतरमिदानीमनुवदति ।
नैयायिकों द्वारा माने गये दूसरे प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थानका श्री विद्यानन्द आचार्य इस समय अनुवाद करते हैं।
प्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थस्य धर्मविकल्पतः ।
योसौ तदर्थनिर्देशस्तत्प्रतिज्ञांतरं किल ॥ १२७ ॥
गौतम सूत्रके अनुसार दूसरे निग्रहस्थानका लक्षण यों है कि प्रतिज्ञा किये जा चुके अर्थका निषेध करनेपर धर्मके विकल्पसे जो वह साध्यसिद्धि के लिये उसके अर्थका निर्देश करना है, वह प्रतिज्ञान्तर नामक निग्रहस्थान सम्भवता है।
प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञांतरं तल्लक्षणसूत्रमनेनोक्तमिदं व्याचष्टे ।
वादी द्वारा प्रतिज्ञात हो चुके अर्थका प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करनेपर वादी उस दूषणकी उद्धार करमेकी इच्छासे धर्मका यानी धर्मान्तरका विशिष्ट कल्प करके उस प्रतिज्ञात अर्थका अन्य विशेषणसे विशिष्टपने करके कथन कर देता है, यह प्रतिज्ञान्तर है । इस कथन करके गौतम ऋषि द्वारा किये गये उस प्रतिज्ञान्तरके लक्षणसूत्रका कथन हो चुका है। इसीका श्री विद्यानन्द आचार्य व्याख्यान करते हैं।
घटोऽसर्वगतो यद्वत्तथा शद्वोप्यसर्वगः । तद्वदेवास्तु नित्योयमिति धर्मविकल्पनात् ॥ १२८ ॥ सामान्येनेंद्रियत्वस्य सर्वगत्वोपदर्शितं । व्यभिचारेपि पूर्वस्याः प्रतिज्ञायाः प्रसिद्धये ॥ १२९॥