Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थोकवार्तिके
अर्थादापद्यमानस्य यच्छद्वेन पुनर्वचः । पुनरुक्तं मतं यस्य तस्य स्वेष्टोक्तिबाधनम् ॥ २३२ ॥
जिस नैयायिकके यहां अर्थप्रकरण से ही गम्यमान हो रहे अर्थका पुनः शद्वों करके कथन करना जो पुनुरुक्त माना गया है । गौतम सूत्रमें लिखा है कि " अर्थादापन्नस्य स्वशद्वेन पुनर्वचनं " । उत्पत्ति धर्मवाला पदार्थ अनित्य होता है, इतना कहने से ही अर्थापत्तिके करके यों जान लिया जाता है कि उत्पत्तिधर्मसे रहित हो रहा सत् पदार्थ नित्य होता है । जीवित देवदत्त घरमें नहीं है । इतना कह देने से ही घर से बाहर देवदत्तका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । अतः अर्थसे आपादन किये जा रहे अर्थका स्ववाचक शब्दोंकर के पुनः कथन करना भी पुनरुक्त है । इसपर आचार्यका कहना है कि उक्त सिद्धान्त मानने पर उन नैयायिकोंके यहां अपने अभीष्ट कथनसे ही बाधा उपस्थित हो जाती है । नैयायिकोंने अनेक स्थलोंपर विना कहे ही जाने जा रहे प्रतिज्ञा आदिकोंका निरूपण किया है । विद्वानोंको स्ववचनबाधित कथन नहीं करना चाहिये ।
योप्याह, शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात् अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तमिति च तस्य प्रतिपन्नार्थप्रतिपादकत्वेन वैयर्थ्यान्निग्रहस्थानमिति मतं न पुनरन्यथा । तथा च निरर्थकान्न विशिष्यते, स्ववचनविरोधश्च । स्वयमुद्देशळक्षणपरीक्षावचनानां प्रायेणाभ्युपगमादर्थाद्गम्यमानस्य प्रतिज्ञादेर्वचनाच्च ।
जो भी गौतमसूत्र अनुसार नैयायिक यों कह रहा है, शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमम्यत्रानुवादात् और अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तं " इन दो सूत्रोंका अर्थ यों कहा जा चुका है कि अनुवाद करनेसे अतिरिक्त स्थलोंपर शब्द और अर्थका जो पुनः कथन करना है, वह पुनरुक्त निग्रहस्थान है । तथा अर्थापत्तिद्वारा अर्थसे गम्यमान हो रहे प्रमेयका पुनः स्वकीय पर्यायवाचक शब्दों से पुनः कथन करना भी पुनरुक्त है । उस सूत्रके अनुयायी नैयायिकों के यहां जाने हुये ही अर्थका प्रतिपादक होनेसे व्यर्थ हो जाने के कारण पुनरुक्तको निग्रहस्थान माना गया है, यह उनका अभीष्ट सिद्धान्त है । पुनः अन्य प्रकारोंसे पुनरुक्त निग्रहस्थान स्वीकृत नहीं किया है। और तिस प्रकार होनेपर वह पुनरुक्त निग्रहस्थान तो निरर्थक निग्रहस्थानसे कुछ भी विशेषताओं को नहीं रखता है । अतः निग्रहस्थानोंकी व्यर्थ संख्या बढानेसे कोई लाभ नहीं है । दूसरी बात यह है कि नैयायिकों को अपने कथनसे ही अपना विरोध आजानारूप दोष उपस्थित होगा । क्योंकि नैयायिकोंने ग्रन्थोंमें उद्देश, लक्षण निर्देश और परीक्षा के पुनरुक्त वचनोको बाहुल्यसे स्वीकार किया
| नाममात्र कथनको उद्देश कहते हैं । असाधारण धर्मके कथनको लक्षण कहते हैं । बिरुद्ध नाना