Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
युक्तियोंके प्रबळपन और दुर्बलपनके निर्णय करनेके लिये प्रवर्त रहे विचारको परीक्षा कहते हैं। गौतमसूत्रमें ही पहिले प्रमाण, प्रमेय, संशय आदि सोलह पदार्थोका उद्देश किया है। पुनः उनके लक्षण या भेदोंको कहा है । पश्चात्-उनकी परीक्षा की गयी है। वैशेषिक दर्शनमें भी प्रथम अध्यायके पांचवे सूत्र अनुसार पृथ्वीका उद्देश कर पुनः रूप, रस, गन्धस्पर्शवती पृथिवी ऐसा द्वितीय अध्यायके प्रथमसूत्रद्वारा लक्षण किया है । पीछे परीक्षा की गयी है, तथा अनेक स्थलोंपर शब्दोंके प्रयोग विना ही गम्यमान हो रहे प्रतिज्ञा, दृष्टान्त, आदिका कण्ठोक्त शब्दोंद्वारा निरूपण किया है । ऐसी दशामें उनको अपने इष्ट पुनरुक्त निग्रहस्थानसे भय क्यों नहीं लगा ! अतः सिद्ध होता है कि पुनरुक्त कोई निग्रहस्थानके लिये उचित दोष नहीं है । यदि कुछ थोडासा है भी तो वह निरर्थक. रूपसे ही वक्ताका निग्रह करा देगा । पुनरुक्तको स्वतन्त्र न्यारा निग्रहस्थान मानना निरर्थक है । ___यदप्युक्तं, विज्ञातस्य परिषदा त्रिभिरभिहितस्यामत्युच्चारणमननुभाषणं निग्रहस्थान मिति तदनूध विचारयन्नाह ।।
और भी जो नैयायिकोंने चौदहवें अननुभाषण निग्रहस्थानका लक्षण गौतमसूत्रमें इस प्रकार कहा था कि समाजनोंकरके विशेषरूपसे जो जान लिया गया है, ऐसे वाक्यार्थके वादी करके तीन वार कह दिये गये का भी जो प्रत्युत्तर कोटिके रूपमें प्रतिवादीद्वारा उच्चारण नहीं करना है, वह प्रतिवादीका अननुभाषण निग्रहस्थान है । इस प्रकार उस नैयायिकके वक्तव्यका अनुवाद कर विचार करते हुये श्री विद्यानंद आचार्य व्याख्या करते हैं।
त्रिर्वादिनोदितस्यापि विज्ञातस्यापि संपदा।
अप्रत्युच्चारणं प्राह परस्याननुभाषणम् ॥ २३२ ॥ ___ वादीकरके तीन वार कहे हुये का भी अत एव विद्वत् परिषद करके भी भले प्रकार जान लिये गये पदार्थका जो दूसरे प्रतिवादीद्वारा प्रत्युत्तर रूपसे उच्चारण नहीं किया जाना है, वह पर वादीका अननुभाषण निग्रहस्थान है।
तदेतदुत्तरविषयापरिज्ञानान्निग्रहस्थानमप्रत्युच्चारयतो दूषणवचनविरोधात् । तत्रेदं विचार्यते, किं सर्वस्य वादिनोक्तस्याननुवारणं किं वा यनांतरीयका साध्यसिद्धिरभिमता तस्य साधनवाक्यस्याननुच्चारणमिति । .... तिस कारण यह अननुमाषण, प्रतिवादीको उत्तर विषयक परिज्ञान नहीं होनेसे उस प्रति. वादीका निग्रहस्थान माना गया है । क्योंकि प्रतिवादीका कर्तव्य है कि वादीके कहे हुये पक्षमें दोष निरूपण करें। जब कि प्रतिवादी कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं कर रहा है तो ऐसे चुप्पे प्रतिवादी द्वारा दूषण वचन कहे जानेका विरोध है। भाष्यकार इसके ऊपर खेद प्रकट करते हैं कि कुछ भी
52