Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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" तत्वार्थचिन्तामणिः
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बुद्धिबल, तपोबल, वाग्मित्व, सभाचातुर्य, प्रत्युत्पन्नमतित्व, शास्त्रहृदय परिशीलन, प्रतिमा, पाप- भीरता, हितमितगम्भीरमाषण, प्रकाण्डविद्वत्ता आदि गुणोंकी आवश्यकता है। यह समझ लेना चाहिये ।
तथा च संक्षेपतः " स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिन " इति व्यवतिष्ठते । न पुनर्विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्ती तद्भावेपि कस्यचित्स्वपक्षसिद्धाभावे परस्य पराजयानुपपत्तेरसाधनांगवचनादोषोद्भावनमात्रवत् छळवद्वा ।
और तिस प्रकार सिद्धान्तनिणींत हो जानेपर यह अकलंक व्यवस्था बन जाती है कि वादी प्रतिवादी दोनोंसे एकके निज पक्षकी प्रमाणों द्वारा सिद्धि हो जाना ही दूसरे अन्य वादीका निग्रह हो गया समझा जाता है। किन्तु फिर नैयायिकोंके यहां माने गये सामान्य लक्षण विप्रतिपत्ति और मविप्रतिपत्ति तो निग्रहस्थान नहीं हैं। क्योंकि उन विपरीत या कुत्सित प्रतिपत्तिके होनेपर और अप्रतिपत्तिके होनेपर भी यदि किसी भी एक वादी या प्रतिवादीके निज पक्षकी सिद्धि नहीं हो पाती है, तो ऐसी दशामें दूसरेका पराजय होना कथमपि नहीं बन सकता है । केवल असाधनांगका वचन कह देनेसे किसीका पराजय नहीं हो सकता है। जैसे कि केवल दोषका उठा देना मात्र अथवा तू छल करनेवाला है, केवल इतना कह देनेसे कोई जयको झट नहीं लूट सकता है । मावार्थ-नैयायिकोंके न्याय दर्शन प्रन्थके पहिले अध्यायकका साठवां सूत्र है कि " विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निप्रहस्थानम् " इसका वात्स्यायन भाष्य यों है कि " विपरीता कुत्सिता वा प्रतिपत्तिर्विप्रतिपत्तिः । विप्रतिपद्यमानः पराजयं प्राप्नोति निग्रहस्थानं खलु पराजयप्राप्तिः । अप्रतिपत्तिस्त्वारम्भविषये न प्रारम्भः । परेण स्थापितं न प्रतिषेधति प्रतिषेधं वा नोद्धरति, असमासाच्च नैते एव निग्रहस्थाने इति " निग्रहस्थानोंका बीज विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति (प्रकरण प्राप्तका बज्ञान) है । इनकी नाना कल्पनाओंसे निग्रहस्थानके चौवीस भेद हो जाते हैं । तिनमें अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिमा, विशेष, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, ये तो अप्रतिपत्ति हैं । और शेष प्रतिज्ञाहानि आदिक तो विप्रतिपत्ति हैं । यदि निग्रहस्थानदाता निग्रहस्थान पात्रके विरुद्ध अपने पक्षकी सिद्धि नहीं कर रहा है, तो वह उसको जीत नहीं सकता है । यह नैयायिकोंके ऊपर हमको कहना है । तथा बौद्धोंके यहां असाधनांग वचन और अदोषोद्भावन ये दो वादी प्रतिवादियोंके निग्रहस्थान माने गये हैं। किन्तु यहां भी जय प्राप्तिकी अभिलाषा रखनेवाळेको अपने पक्षकी सिद्धि करना अनिवार्य है। अथवा नैयायिकोंने छळको निरूपण कर देनेवाले वादी करके छलप्रयोक्ता प्रतिवादीका पराजय इष्ट किया है। यह भी मार्ग प्रशस्त नहीं है । छल उठानेवाले विद्वान्को सन्मुख स्थित छलप्रयोक्ताके विरुद्ध अपने पक्षकी सिद्धि कर देना अत्यावश्यक है । अन्यथा चतुर, विचक्षण, विद्वानोंको छली बताते हुये भोंदू मूढ, पुरुष जय लूट ले जायंगे । अतः छठोंको दृष्टान्त बना कर आचार्योने निग्रहस्थानोको पराजय प्राप्त करानेका प्रयोजक नहीं साधने दिया है।