Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
नहीं हो सकता है । लोकों करके यह प्रत्यक्ष रूपसे मले प्रकार देखा जा रहा है । धर्मकीर्तिकी अन्यत्र दुर्गति हो जानेसे भले ही उनको नहीं दीखे इसके लिये हम क्या करें, वे भुगतें । ___ ततोऽननुभाषणं सर्वस्य दूषणविषयमात्रस्य वान्यदेवाप्रतिभायाः केवलं तन्निग्रहस्थानमयुक्तं, परोक्तिमप्रत्युच्चारयतोपि दूषणवचनन्याय्यात् । तद्यथा-सर्व प्रतिक्षणविनश्वरं सत्त्वादिति केनचिदुक्ते तदुक्तमप्रत्युच्चारयन्नेव परो विरुद्धत्वं हेतोरुद्भावयति, सर्वमनेकांतात्मकं सत्त्वात् । क्षणक्षयायेकांते सर्वथार्थक्रियाविरोधात् सत्त्वानुपपत्तेरिति समर्थयते च तावता परोपन्यस्तहेतोदूषणात् किं प्रत्युच्चारणेन ।
तिस कारणसे सिद्ध होता है कि दूषण देनेके विषय हो रहे केवळ साध्य, हेतु, आदि सब का उच्चारण नहीं करना प्रतिवादीका अननुभाषण है, जो कि अप्रतिभा निग्रहस्थानसे न्यारा ही है । धर्मकीर्तिद्वारा दोनों निग्रहस्थानोंका एक कर देना उचित नहीं है। हम जैनोंको नैयायिकोंके प्रति केवळ यहां इतना ही कहना है कि उस अननुभाषणको निग्रहस्थान मानना युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि दूसरे विद्वान् के द्वारा कहे गये का प्रत्युच्चारण नहीं कर रहे भी प्रतिवादीके द्वारा दूषण वचन कहा जाना न्यायमार्ग है । कोई व्याघात नहीं है । उसको इस प्रकार समझ लीजिये कि सभी पदार्थ ( पक्ष ) प्रत्येक क्षणमें नष्ट हो जाने स्वभाववाले हैं ( साध्य ) सत्पना होनेसे ( हेतु ) इस प्रकार किसी वादीने अनुमानवाक्य कहा । उस कहे गये का प्रतिकूल पक्षमें उच्चारण नहीं करता हुआ भी दूसरा विद्वान् वादीके हेतुका विरुद्धहेत्वाभासपना दोष उठा देता है कि सभी पदार्थ (पक्ष) नित्यपन, अनित्यपन अनेक धर्मस्वरूप ( साध्य), सत् होनेसे (हेतु । इस प्रकार क्षणिकस्वसे विरुद्ध अनेकान्तात्मकपनके साथ सत्त्व हेतु व्याप्त हो रहा है। एक क्षणमें ही नष्ट हो जाना, कूटस्थ नित्य बने रहना आदि एकान्तोंमें सभी प्रकारोंसे अर्थक्रिया होनेका विरोध हो जानेसे सत्पना नहीं बन पाता है। इस प्रकार प्रतिवादीने सत्त्व हेतुका विपक्षमें बाधक प्रमाण दिखलाते हुये समर्थन भी कर दिया है । बप्स, केवल इतनेसे ही अगले वादीद्वारा कहे गये हेतुका दूषण हो जाता है, तो उस वादीके कहे गये का पुनः प्रत्युच्चारण करनेसे क्या लाभ है । अतः द्वितीयपक्ष मानना ही अच्छा दीखता है । जिसके विना अपने अभीष्ट साध्यकी सिद्धि नहीं होवे, उसीका प्रति उच्चारण नहीं करना प्रतिवादीका अननुभाषण निग्रहस्थान मानना चाहिये ।
___ अथैवं दूषयितुमसमर्थः शास्त्रार्थज्ञानपरिणतिविशेषरहितत्वात् तदायमुत्तरापतिपत्तेरेव तिरस्क्रियते न पुनरप्रत्युच्चारणात् । सर्वस्य पक्षधर्मत्वादेर्वानुवादे पुनरुक्तत्वानिष्टेः प्रत्युच्चारणोपि तत्रोत्तरमप्रकाशयन् न हि न निगृह्यते स्वपक्षं साधयता यतोऽप्रतिभैव निग्रहस्थानं न स्यात् ।