Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्य डोकवार्तिके
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समन्वयरूप हेतु नहीं ठहर सकेगा " भेदानां परिमाणात्समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेव कारणकार्य विभागादविभागाद्वैश्वरूप्यस्य " ये हेतु प्रधान के सर्वथा एकपनके बाधक हैं । अत अपसिद्धान्त हुआ।
ब्रह्मात्माद्वैतमप्येवमुपेत्यागमवर्णनं । कुर्वन्नाम्नायनिर्दिष्टं बाध्योन्योप्यनया दिशा ॥ २७१ ॥ स्वयं प्रवर्तमानाश्च सर्वथैकांतवादिनः।
अनेकांताविनाभूतव्यवहारेषु तादृशाः ॥ २७२ ॥
इसी प्रकार परमब्रह्म, आत्माके अद्वैतवादको स्वीकार कर पुनः अनादि कालके गुरूपरम्परा प्राप्त थाम्नायसे कहे गये वेद भागमकी प्रमाणताका वर्णन कर रहा ब्रह्माद्वैत वादी बाधित हो जाता है । अतः उसका अपसिद्धान्त निग्रह हुआ अर्थात्-अकेले ब्रह्मको मानकर उससे भिन्न शब्द स्वरूप आगमको प्रमाण कर रहा वादी अपने अद्वैत सिद्धान्तसे च्युत हो जाता है । इसी संकेत ( इशारा) से उपलक्षण द्वारा अन्य भी अपसिद्धान्तोंको समझ लेना चाहिये । अर्थात-ज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत या जीवतत्वको स्वीकार कर पुनः द्वैतवाद या जडवादका निरूपण करने लग जाना अपसिद्धान्त है। इसी प्रकार अन्य भी अपसिद्धान्तके निदर्शन सम्भव जाते हैं । अनेकान्तके साथ अविनाभावी हो रहे व्यवहारोंमें स्वयं प्रवृत्ति कर रहे सर्वथा एकान्तवादी पुरुष भी वैसे ही एक प्रकारके अपसिद्धांती हैं । अर्थात्-सर्वथा क्षणिकवाद या कूटस्थवाद अथवा गुणगुणीके सर्वथा मेद या अमेदके माननेपर कैसे भी अर्थक्रिया नहीं हो पाती है । क्षणमात्र ही ठहरनेवाला घट जलधारण नहीं कर सकता है। हिंसा करनेवाला क्षणिक आत्मा वही पीछे नरकमें नहीं पहुंच सकता है । कूटस्थ आत्मा तदा वैसा ही बना रहेगा । उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है। अतः खाना,पीना, बोलना स्वर्गजाना परिणामी कुछ काळतक ठहरनेवाले अनेकान्त पदार्थोंमें होती हैं। कहांतक कहा जाय जगत्के सम्पूर्ण व्यवहार पदार्थों में अनेक धर्मोको माने विना नहीं सध सकते हैं। इस बातका अनुभव करते हुए भी सर्वथा एकान्तके पक्षको ही बके जा रहे एकान्तवादी अपने सिद्धान्त नियमका लक्ष्य नहीं रखकर प्रवृत्तियां कर रहे हैं । अतः एक प्रकारसे उनका अपसिद्धान्त निग्रहस्थान हुआ समझो ।
यदप्यवादि, हेत्वाभासाश्च यथोक्ता इति तत्राप्याह ।
और भी जो नैयायिकोंने गौतमसूत्रमें कहा था कि " हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः " इस का अर्थ यों है कि जिस प्रकार प्रथम अध्यायके द्वितीय आनिकों हेत्वाभासोंको पहिले कहा है, उस ही स्वरूपकरके उनको निग्रास्थानपना है । अतः हेत्वाभासोंके अन्य लक्षणोंकी अपेक्षा नहीं है। न्यायभाष्यकार कहते हैं कि " हेत्वाभासाश्च निग्रहस्थानानि किं पुनर्लक्षणान्तरयोगात्, हेस्वाभासाः निग्रहस्थानत्वमापन्नाः यथा प्रमाणानि प्रमेयत्वमित्यत आह यथोक्ता इति । हेत्वामासलक्षणेनैव निग्रह