Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्थान हुआ कह दिया जायगा, आचार्य महाराज परीक्षा करते हैं कि वह अपसिद्धान्त भी निग्रह करानेके लिये युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि तत्त्वदृष्टिसे देखा जाय तो निग्रहस्थानको उठाकर परिश्रमके विना ही जीतने के इच्छा रखनेवाले इस पण्डितंमन्यने अपने पक्षका साधन नहीं किया है। साध्यके साधक अंगोंका कथन नहीं करनेसे किसीको जयप्राप्ति नहीं होती है। जैसे कि केवल दोषोंका उत्थापन कर देनेसे ही कोई जयी नहीं हो जाता है । अतः वक्ताके ऊपर अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान उठानेवालेको अपने पक्षकी सिद्धि करना अनिवार्य है।
तत्राभ्युपेत्य शद्वादीनित्यानेव पुनः स्वयम् । ताननित्यान ब्रुवाणस्य पूर्वसिद्धांतबाधनम् ॥ २६८ ॥ तथैव शून्यमास्थाय तस्य संवेदनोक्तितः। पूर्वस्योत्तरतो बाधा सिद्धान्तस्यान्यथा क तत् ॥ २६९ ॥
उस अपसिद्धान्तमें ये निम्न लिखित उदाहरण दिये जा सकते हैं कि मीमांसक प्रथम ही शद्ध, आत्मा, आदिको नित्य ही स्वीकार कर चुका है । शास्त्रार्थ करते करते पुनः उन शब्द आदिकोंको अनित्य कह बैठता है। ऐसी दशामें उस मीमांसकको अपने पूर्वसिद्धान्तकी बाधा उपस्थित हो जाती है । अतः अपसिद्धान्त हुआ। उसी प्रकार शून्यवाद या तत्त्वोपप्लव वादकी प्रतिज्ञा पूर्वक श्रद्धा कर पुनः उसके सम्वेदन हो जानेका कथन करनेसे पूर्व अंगीकृत सिद्धान्तकी उत्तरकालवर्ती कथनसे बाधा उपस्थित हो जाती है । अन्यथा वह विरुद्ध कथन भला कहां हो सकता था ! अर्थात्-शून्यतत्वका ज्ञान माननेपर ज्ञान पदार्थ ही वस्तुभूत सिद्ध हो जाता है। फिर पहिला सभी शून्य है, जगत्में कुछ नहीं है, यह सिद्धान्त कहां रक्षित रहा! ..
प्रधानं चैवमाश्रित्य तद्विकारप्ररूपणम् । ताहगेवान्यथा हेतुस्तत्र न स्यात्समन्वयः ॥ २७०॥ .
इसी प्रकार कपिल मत अनुसार एक प्रकृति तत्त्वका ही आश्रय लेकर पुनः उस प्रकृतिके महान्, अहंकार, तन्मात्रायें, इन्द्रियां, पन्चभूत, इनको विकार कथन करमा भी उस ही प्रकार है । यानी अपसिद्धान्त निग्रह है । माष्यकारने यही दृष्टान्त दिया है कि सत्का विनाश और असत्का उत्पाद होता नहीं है । इस सिद्धान्तको स्वीकार कर " एकप्रकृतीदं व्यक्तं विकाराणामन्वयदर्शनात् " जैसे मिट्टीके विकार घडा, घडी, भोला आदिमें मृत्तिका अन्वय है । तिसी प्रकार अहंकार, इन्द्रिय आदि भिन्न भिन्न व्यक्तोंमें सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणके कार्य हो रहे सुख, दुःख, मोहका अन्वय देखा जाता है । इस प्रकार सांख्योंका कहना पूर्व अपर विरुद्ध पड जाता है। अन्यथा वह